पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१७१

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at+ + PanoramruppM Rome श्रीभक्तमाल सटीक। से पूछने लगे कि “किस घटती (न्यूनता) से शंख नहीं बजा ? सो कारण श्राप कृपा करके बता दीजिये ॥" (८७) टीका । कवित्त । (७५६) बोले कृष्णदेव, याको सुनो सव भेव, ऐपै नीके मानिलेव बात दुरी' समुझाइये । भागवत संत रसवंत कोऊयो नाहि, ऋषिनसमूह भूमि चहूँ दिशि छाइये ॥ जोपै कहो "भक्त नाहिं कैसे कहीं गहौं गांस एक और कुलजाति सो बहाइये । दासनि को दास, अभिमान कोनवास कहूँ पूरण को आस, तो ऐमो लै जिंवाइये ॥ ७६ ।। (५५३) वार्तिक तिलक । श्रीकृष्ण भगवान् ने उत्तर दिया कि इसका सब भेद सुनो । परन्तु सुनके उसको भलेप्रकार से मानना क्योंकि मैं तुम्हें गोप्य रहस्य बताए देता हूँ यद्यपि ऋषियों के वृन्द तो आके यज्ञभूमि में चारों ओर छाए हुए हैं, परंच किसी भक्तिरसरसिक भागवत मेरे प्यारे सन्त ने तुम्हारे इस यज्ञ में भोजन नहीं किया, इसीसे शंख नहीं बजा । यह यदि कहिए कि "क्या ये सब मुनिगण श्रापके भक्त नहीं हैं ?" तो यह कैसे कहूँ कि "ये मेरे भक्त नहीं हैं" परन्तु एक और ही गांस ग्रहण करने योग्य है, कि ये सब ऋषिमुनिश्राचार,ब्रह्मज्ञान, जाति कुल आदिक के अभिमान से भरे हुए हैं, पर मेग भक्त तो जाति और कुल श्रादिक के अभिमान को भक्तिरूपी निर्मल नदी में बहा के मेरे दासों का भी दास हो कर समस्त अभिमानों के लेश से रहित रहता है । चौपाई। “भक्ति विरति विज्ञान निधाना । बास विहीन गलित अभिमाना॥ रहीहं अपनपौ सदा दुराए । सब विधि कुशल कुवेष बनाए॥ तेहिते कहहिं सन्त श्रुति टेरे। परम अकिंचन प्रिय हरि केरे।। प्रभु जानत सब बिनहिं जनाए । कहहु लाभ का लोक रिझाए॥” दो० "तिनहिं न जानहिं प्रगट सब, ते न जनावहिं काहु । लोकमान्यता अनल सम, कर साधन बन दाह ॥" १"दुरी"छुपी गुप्त । २ "गांस"= गुप्त सूक्ष्म बात । ३ "बास"= गन्ध, तनक कुछ ।