पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१७२

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0444++न 44444 भक्तिसुधास्वाद तिलक । १५३ यदि तुम्हें यज्ञ की पूर्णता की इच्छा हो, तो ऐसे मेरे प्यारे भक्त को भोजन कराश्रो॥" (८८) टीका । कवित्त । (७५५) ऐसो हरिदास पुरत्रासपास दीसै नाहिं, वासविनु कोऊ लोक लोकनि में पाइये। "तेरे ई नगर मांझ निशि दिन भोर सांझ आ जाय, ऐप काहू वात न जनाइये" ॥ सुनि सब चौकि परे, भाव अचरज भरे, हरे मन नैन “अजू! बेगिही बताइये । कहां नाव ? कहां ठाँव ? जहां हम जाय देखें. लेखें करि भाग, धाय पाय लपटाइये ॥"७७ ।। (५५२) वात्तिक तिलक। ऐसे श्रीमुखवचन सुनके श्रीयुधिष्ठिरजी बोले-कि “ऐसे भगवत् दास तो हमारे नगर के भासपास कहीं दिखाई नहीं देते, वरंच ऐसे विरक्त सर्व , वासनाविगत सन्त कदाचित् कहीं किसी लोक लोकान्तर में मिलें तो मिलें।" तब आपने कहा कि “तुम्हारे ही पुर में तो दिन रात रहते हैं, और नित्यही सांझ सवेरे तुम्हारे यहां आते जाते हैं, परन्तु न कोई उनके प्रभाव को जानता है, और न वे किसी को जताते हैं।"

यह सुनते ही सर्व चकित होके श्राश्चर्य्यभाव में मग्न हो गए, सब के

, मन तथा नेत्र दर्शन के अभिलाष से अकुला उठे, और सब कहने लगे कि अब कृपा करके शीघ्र ही बता दीजिये कि “उनका क्या नाम है और वे कहां विराजते हैं, जहाँ हम जाके दर्शन करके अपना धन्यभाग्य मानें और उनके चरणकमल में लपट जायँ ।" (९) टीका । कवित्त । (७५४) "जिते मेरे दास कy चाहैं न प्रकास भयो, करौं जो प्रकास, मानमहा- । दुखदाइये । मोको परयो सोच यज्ञपूरन की लोचे हिये वाको नाम कहूं, जिनि ग्रामतजि जाइये ॥ ऐसौ तुम कहो, जामें रहो न्यारे प्यारे ! सदा, हमहीं लिवाइ ल्याइ, नीकेकै जिमाईये । जावो 'बालमीक घर, बड़ो अवैलीक साधु, कियो अपराध हम दियो जो वताइये" ॥७८॥ (५५१) १ "वासविनु" =ग्रहहीन, विरक्त, बासना विगत, इच्छा रहित । २ "लोच" = देखने की इच्छा । ३"जिनि"=मत, नही ४"जिमाइये" =जिबाइये, भोजन कराइए। ५ "अवलीक" =निय॑लीक, सच्चा ।।