पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१७३

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१५४ श्रीभक्तमाल सटीक । वार्तिक तिलक। तब प्रभु ने कहा कि "जितने मेरे सच्चे दास हैं, वे कभी लोक में प्रकाशित नहीं हुया चाहते भौर यदि मैं उनके गुणों का प्रकाश कर, तो वे उस प्रकाश को अपने मन में बड़ा दुखदाई मानते हैं। परन्तु अव मुझे बड़ा ही सोच पड़ा क्योंकि तुम्हारे यज्ञ को पूर्ण देखने की बड़ी भारी इच्छा है । और यदि मैं तुम से उनका नाम बताऊँ तो कहीं ऐसा न हो कि वे इस ग्राम ही को छोड़ के चले जावें।" श्रीयुधिष्ठिरजी बोले कि "हे प्यारे ! आप इस प्रकार से बता दीजिये कि जिसमें आप तो सदा अलग के अलग ही रहिये, पर हम ही जाके लिवाय लावें. और भली भाँति से भोजन करावें ।" श्रीकृष्णभगवान ने भाज्ञा दी कि “वाल्मीकि के घर जात्रो, वे सच्चे बड़े ही साधु हैं। क्या कहूँ। मैंने उनका बड़ा अपराध किया कि तुमसे प्रगट कर बता दिया ॥" ( ९० ) टीका । कवित्त । (६५३ ) अर्जुन श्री भीमसेन चलेई निमन्त्रन को, अन्तर उघारि कही भक्ति भाव दूर है । पहुँचे भवन जाइ, चहूँ दिशि फिरि, आइ, परे भूमि, भूमि, पर देख्यो छवि पूर है । भाए नृपराजनि को देखि, तजे काजनि को, लाजनि सो कापि कापि भयो मन चूर है। पायनि को धारिये जू जूठन को डारिये जू पापग्रह टारि ये जू, कीजे भाग भूर है ।। ७६ ॥ (५५०) बात्तिक तिलक । प्रभुभावानुसार श्रीअर्जुनजी तथा भीमसेनजी उनको नेवता देके लाने के लिये चले, प्रभु ने हृदय खोलके कह दिया कि "जाते तो हो परन्तु मन में कोई न्यूनना नहीं लाना, क्योंकि भक्ति का भाव बहुत ही अगम होता है ।।" वे दोनों इनके घर जा पहुँचे, चारो ओर फिरके इनके घर की परिकर्मा कर, सम्मुख श्रा, प्रेम से झूम झूम भूमि में पड़ उन दोनों १ "दूर दुरी, समीम नहीं, छुपी, अप्रगट । २ “पापग्रह" -गनि, गहु, केतु, जो जो प्रतिकूल हो ।