पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१७४

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१५५ -- - - - - भक्तिसुधास्वाद तिलक । ने दण्डवत् किये, और देखा कि इनका भवन, भीतर श्रीभगवन्नाम शंख चक्र चिह्न श्रीतुलसीवृन्द इत्यादिक भक्ति सामग्री की छवि से भरा है। जब इनने देखा कि राजाओं के राजा मुझ दीन के घर प्राण, तो भजन के कार्यों को छोड़ दिया, और अत्यन्त लज्जा से मन में चूर चूर होके काँपने लगे। __ श्रीअर्जुनजी ने प्रार्थना की कि "महात्माजी । आप कृपा करके मेरे घर चरण धरिये, भोजन करके अपना जूठन गिराइये और हमारे घर को सम्पूर्ण पापों से रहित तथा शुद्ध करके हमको पापग्रहों से छुड़ाके हम सबको बड़ भागी कीजिये ।।” (९१) टीका । कवित्त । (७५२) “जूठनि लै डारौं, सदा द्वार को बुहारौं, नहीं और कौं निहारौं अजू! यही सांचोपन है"। "कहो कहा ?" जेंवो कछू पाछे लै जिंबावो हमें जानी गई रीति भक्तिभाव तुम तन है । तब तो लजानो, हिये कृष्ण पै रिसानी, नृप चाहो सोई ठानौ, मेरे संग कोऊ जन है । भोर ही पधागै अब यही उर धारी और भूलि न विचारों कही भली जो पै मन है ।। ८० ॥ (५४६) वात्तिक तिलक । __ यह सुन, श्रीवाल्मीकिजी अपने भाव को छिपाते और निज जाति की न्यूनता को प्रकट करते हुए बोले कि, "अजी महाराज ! मेरी तो यही प्रतिज्ञा है ही कि सदा आपके जूंठे पत्तल श्रादि बाहर फेक आया करता हूँ, और पापही के दार को झाड़ता बहारता हूँ दूसरे किसी की ओर तो मैं देखता तक नहीं ॥" - श्रीअर्जुनजी ने सादर कहा कि “श्राप यह क्या कहते हैं ? कृपा कर- के चलिये, हमारे यहाँ कुछ भोजन कीजिये और पीछे हम लोगों को खिलाइये, आपको भोजन कराए विन हम लोग खा नहीं मकते, क्योंकि हम भापके स्वरूप तथा प्रभाव को भले प्रकार से जान चुके हैं कि प्रभु की प्रीति गति भक्तिभाव से आपका तन मन पूर्ण है ।" तब तो श्रीवाल्मीकिजी लजाए और हृदय में श्रीकृष्णचन्द्र पर