पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१७५

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-MM - - -00 .HAMALAM -pro +44 १५६ श्रीभक्तमाल सटीक । रिसियाने कि “प्रभो ! मुझे प्रकट करना यह तुम्हारा ही काम है ! तुमने यह क्या किया ?” फिर प्रत्यक्ष में श्रीअर्जुनजी से कहा कि “भाप राजा हैं, जो चाहिये सो कीजिये, मैं क्या कर सकता हूँ, क्या कोई सहाय करनेवाले मनुष्य मेरे साथ हैं ?" श्रीअर्जुनजी ने कहा कि “इन सब बातों को छोड़के हम पर कृपा कीजिये, और हमारे घर आप कल सवेरे ही पधारिये, अब दूसरा कुछ भूलके भी न विचारिये, केवल हमारीप्रार्थनाही को अङ्गीकार कीजिये।" जब महात्माजी ने उनका यह आग्रह तथा ऐसी श्रद्धा और प्रीति देखी, तो सरलवाणी से वाले कि “बहुत अच्छा, जो आपकी वही रुचि है तो वैसा ही करूँगा।" (९२) टीका । कवित्त । (७५१) । कही सव रीति, सुनि धर्मपुत्र प्रीति भई, करी लै रसोई, कृष्ण द्रौपदी सिखाई है। "जेतिक प्रकार सव व्यञ्जन सुधारि करो, प्राजु तेरे हाथनि को होति सफलाई है"॥ ल्याए जा लिवाइ, कहै “वाहिर जिमाई देवो," कही प्रभु “श्रायु ल्यावो अंक भरि भाई है"। श्रानि के बैठायो पाकशाल में, रसाल ग्रासलेत बाज्यो शंख, हरि दण्ड की लगाई है ॥१॥(५४८) ___ बात्तिक तिलक । आयके, श्रीअर्जुनजी और भीमसेनजी ने श्रीयुधिष्ठिरजी से श्री- बाल्मीकिजी की रीति प्रीति भक्ति का वर्णन किया। सुनके श्रीधर्मपुत्र महाराज को अत्यन्त प्रेम हुश्रा और मन में कहा कि-- "हरि को भजै सो हरि को होई । जाति पांति पूछै नहिं कोई ॥" तदनन्तर श्रीद्रौपदीजी रसोई करने लगी,श्रीकृष्ण भगवान ने उनको सिखाया कि “जितने प्रकार के व्यञ्जन तुम जानती हो सो सब अच्छे प्रकार से सुधार के करो, आज तुम्हारे हाथों की सफलता है।" फिर भोजन के समय युधिष्ठिरादि स्वयं जाके उनकोसादर ले पाए। श्रीवाल्मीकिजी ने कहा कि "मुझे बाहर यहीं बैठाके प्रसाद पवा दीजिये" परन्तु प्रभु ने श्रीअर्जुनजी से आज्ञा की कि "ऐसा नहीं, बरंच मेरी