पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१७६

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4 -0 -- - --+-+ -+- patMR + +H MINFORM भक्तिसुधास्वाद तिलक । तो यह रुचिहै कि इनको सादर भीतर ले चलके बैठायो" ऐसाही किया अर्थात् पाकशालामें ही विठलाके उनके आगे व्यंजनों के थार ला रक्खे ॥ श्रीवाल्मीकिजी ने मनही में श्रीकृष्ण भगवान् को अर्पण किया। चौपाई। "प्रभुहि निवेदित भोजन करहीं। प्रभु प्रसाद पट भुषण धरहीं ॥" फिर ज्योंही परम रसाल ग्रास मुख में डाला, उसी क्षण शंख बजा। बजा तो सही, परन्तु भली भाँति से नहीं। तब श्रीकृष्णचन्द्रजी ने उस शंख को एक बड़ी लगाई। (९३) टीका । कवित्त ( ७५० ) "सीत सीत प्रति क्यों न वान्यो ? कछुलाज्यो कहा ? भक्ति को प्रभावत न जानत यों जानिये" । बोल्यो अकुलाय, "जाय पूछिये जू द्रौपदी कों मेरो दोष नाहि, यह आपु मन भानिये"। मानि सांच वात “जाति बुद्धि आई देखि याहि, सवही मिलाई मेरी चातुरी विहानिये"। पूछेते, कही है बालमीकि “मैं मिलायों यातें प्रादि प्रभु पायो पाउँ स्वाद उन मानिये ॥ ८२॥ (५४७) वार्तिक तिलक । और, प्रभु ने पूछा कि "क्योरे शंख ! तू प्रत्येक सीथ पर नीके प्रकार से क्यों नहीं बजता ? कुछ लजित सा होके क्यों बजा है ? मुझे ऐसा जान पड़ता है कि तू इनकी भक्ति के प्रभाव को नहीं जानता । तब वह अभिमन्त्रित दिव्य शंख अकुलाके स्पष्ट बोला कि "इसका कारण श्राप जाके श्रीद्रौपदीजी से पूछिये, इसमें मेरा दोष नहीं है आप इसे अपने मन में निश्चय मानिये ॥” श्रीप्रभु के पूछने पर श्रीद्रौपदीजी ने शंख की वार्ता को सत्य मानके कहा कि "हां प्रभो । मुझे इनमें जाति बुद्धि आ गई क्योंकि इन्होंने पदार्थों को एक में मिला करके मेरी चातुरी की हानि कर डाली। मैं इनसे, शंख से, तथा आपसे तीनो से क्षमा माँगती हूँ॥" इस पर प्रभु ने श्रीवाल्मीकिजी से पूछा कि "तुम इन विविध प्रकार के व्यंजनों को एक में मिलाके क्यों पाते हो?॥"