पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१७७

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ANPARMANIMATARAMNI+44--0 0 AMAmawr a nknaren- नान - Atline ....... श्रीभक्तमाल सटीक। __ आपने उत्तर दिया कि “इन सब पदार्थों को प्रथमतः आपने तो पाया ही है, इससे ये सब आपके प्रसाद हुए। अब मैं इन्हें पृथक पृथक पाके प्रत्येक के स्वाद को अनुमान नहीं किया चाहता हूँ स्वाद लेने से प्रसाद का भाव जाता रहेगा।" ऐसा सुनते ही, श्रीदोपदी युधिष्ठिरादिका अधिक भाव इनमें हुआ तब शंख की ध्वनि भली भाँति हुई और यज्ञ पूर्ण हुआ। देवता फलों की वर्षा करने लगे । सब बोले कि श्रीभक्ति महारानीजी की जय ।। (६३) श्रीप्राचीनबहिजी। राजाप्राचीनवर्हि पूर्व मीमांसा के अनुसार यज्ञादिक कर्म विधिवत् किया करते थे। इनके कई सहख पुत्र हुए, परन्तु देवर्षि श्रीनारदजी कृपासिन्धु ने दया करके भक्तियोग के अनुपम रहस्य का उपदेश कर, उन सबको विरल बना, हरिभजन में तत्पर कर ही तो दिया । कृपा करके राजा से कहा कि “आँखें मूंद के देख तो" ! उसने और यज्ञ करानेवालों ने देखा कि बहुत पशु कि जिनको उन्होंने यज्ञ में बलि दिया था कोप करके खड़े हैं और इनसे अपना अपना पलटा लेने की प्रतीक्षा कर रहे हैं । “पर पीड़ा सम नहि अधमाई" ॥ “परम धर्मश्रुति विदित अहिंसा ॥” .. वह देख राजा के रोमांच खड़े हो गए और वह समझ गया कि हिंसा वास्तव में महापाप है। श्रीनारदजी का उपदेशपाकर श्रीरामकृपा से राजा तथा यज्ञ करानेवाले ब्राह्मण सब भगवद्भक्तिरूपी बोहित के सहारे संसार सागर तर के परमधाम को चले गए। दो० "उमा ! दान, मष, यज्ञ, तप, नानावत, अरु नेम । राम कृपा नहिं कहिं तस, जस नि केवल प्रेम ॥" ... (६४) श्रीसत्यव्रतजी। श्रीभगवत् के “मीन" अवतार इन्हीं की अंजली में प्रगट हुए थे। राजा सत्यव्रतजी सिन्धुतीर सन्ध्या कर रहे थे सूर्य भगवान को अर्घ देने के समय एक विचित्र मत्स्य इनकी अञ्जली में आ गिरा । राजा ने कमण्डल में छोड़ दिया। वह बढ़ने लगा और ऐसी