पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१७८

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+andutraM444 Mero+NHAMMNMatineer भक्तिसुधास्वाद तिलक। १५९ विलक्षण रीतिमे कि जब क्रमशः घट, हृद, और सर में भी नहीं अटातब उसे समुद्र में पहुंचा दिया। वहाँ आप दशलाख योजन लंबे हो गये और उसके सातवें दिन प्रलय हुआ । मीन भगवानकी श्राज्ञा और उपदेशसे. एक अलौकिक नौका पर, सप्तर्षि इत्यादि और पोषधियों समेत, राजा चढ़े । मत्स्यभगवान ने अपने शृङ्ग में उस नौका को वासुकी नाग से बँधवालिया और उस महा जलार्णव में राजा को उनके साथियों सहित बचा लिया। यही राजा सत्यव्रत की संक्षिप्त कथा है। "केशव ! धृत मीनशरीर, जय जगदीश हरे।" (२) एक दूसरे “श्रीसत्यव्रतजी” रघुवंशी "श्रीवीरमणिजी" थे जिनके नाम "अन्नदाता" आदि भी थे। (६५) श्रीमिथिलेशजी। श्रीमिथिलेश "निमि” जी महाराज की चर्चा श्रीग्रन्थकार स्वामीजी आगे चलके, नवे छप्पय (तेरहवें मूल) में करेंगे, और श्रीमिथिलेश जनकजी महाराज की कथा, हो चुकी है ॥ (६६) राजा श्रीनीलध्वजजी। राजा श्रीनीलजी श्रीनर्मदा तट माहिष्मती में रहते थे। उनके पुत्र प्रवीर ने श्रीअर्जुनजी के यज्ञ के घोड़े को बांध रक्खा, पर लड़ाई में वह हार के अपने पिता नील राजा के पास भाग गया। श्रीनीलजी ने अपने जामाता पावक देव को स्मरण किया जिनने उनके साथ समर में जाकर श्रीअर्जुनजी की बहुत सेना जला डाली, श्रीअर्जुनजी ने वारुणान से अग्नि को शान्त किया चाहा, पर न होसका । तब श्रीकृष्ण भगवान के उपदेश से वैष्णवान चलाया, जिससे पावक देव भाग चले और जाकर उनने नीलजी से कहा कि “जीतना कदापि सम्भव नहीं, अब यज्ञाश्व को छोड़ दो, देदो॥" श्रीनीलजी ने घोड़ा देकर अश्वमेध के अनन्तर, प्रभु के प्रिय सखा श्रीअर्जुनजी से विनय कर, उनके तथा प्रद्युम्नजी के द्वारा, श्रीहरिभक्ति पाके, श्रीकुण्ठ में अचल बास पाया ।