पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१७९

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-- --+ -+-+ -144ree श्रीभक्तमाल सटीक । (६७) श्रीरहूगणजी। राजा श्रीरहूगणजी बड़े प्रतापी तथा बुद्धिमान थे। एक दिन आप, ज्ञानप्राप्ति के लिये श्रीकपिल भगवान के दर्शन को शिविका (पालकी) पर, जा रहे थे। पंथ में एक कहार की आवश्यकताा पड़ी तो लोगएक हृष्ट पुष्ट मनुष्य को पकड़ लाये और पालकी में डरादिया (लगादिया)। आप "श्रीजड़भरतजी", थे। आप मार्ग को देखभाल के जीव जन्तु बचाके पग धरते और कमी २ कूद भी जाते थे। इससे पालकी बहुत हिलती तथा राजा को कष्ट होता था। राजा के रजोगुणी हृदय से तमोगुणमय वाती श्रवण करके जब महात्मा ने सतोगुणी प्रसंग प्रारंभ किया तब राजाजी समझ गये कि ये कोई महान पुरुष (परमहंस) है । तब शिविका से उत्तर, पांव पड़, आपसे सादर विनय किया, क्षमा मांगी, और इष्ट वार्तालाप करने लगे। आपके उपदेश से राजा कृतार्थ हो अपनी राजधानी को लोट पाए। श्री “जड़भरत" जी और राजा रहूगण का संवाद श्रीमद्भागवत के पांचवें स्कन्ध में अवश्य देखना सुनना चाहिये। (६८) श्रीसगरजी। राजा सगर को उनकी सौतेली माता ने गर्भ ही में विष देदियां था. परन्तु गमकृपा से बचे । राजा सगर के, एक स्त्री से, असमंजस नाम एक पुत्र, और दूसरी घी से ६००००(षष्टिसइ) वेटे हुए। असमंजस ने प्रजा के माथ कठिन उपद्रव किया इससे राजा ने उसको देश से निकाल दिया। तब असमंजसजी, अपने योगवल से प्रजा का कल्यान करके, आप वन में रहके हरिभजन करने लगे। राजा सगर के अश्वमेध यज्ञ से इन्द्र घोड़ा चुरा लेजाकर श्रीकपिल- देवजी के आश्रम में बांध आए । सगर के साठसहस्र पुत्रों नेघोड़ा ढूंढने में पृथ्वी खोदी कि जिससे सागर हुथा। वे जब श्रीकपिलदेवजी के पास यज्ञपशु (अश्व) को देखकर कपिल भगवान् को दुर्वचन कहनेलगे, तब आपने आंखें खोली । दृष्टि पड़ते ही साठी सहस्त्र भस्म हो गए।