पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१८१

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H AIHINTAMINORTHAMPA RAMHAINSAMPARNATANJAMImrantibraruriHMMAPHE N HIBIHIJindi श्रीभक्तमाल सटीक नाम यहि ग्राम कोऊ जानै नाहिं" कीनो हो अजान कालिह, लावो गुन गावहीं" ॥३॥(८४६) वात्तिक तिलक। भगवद्भक्त राजा श्रीरुक्माङ्गदजी की पुष्पवाटिका फूलकर सुन्दर सुगन्धित फूलों से भरी पगी सुशोभित हो रही थी, यहां तक कि स्वर्ग की वाटिकाओं से भी अधिक उत्तम थी, और इससे स्वर्गस्त्रियाँ (अप्स- राएँ) भी रात्रि में प्रेम से फल ले जाया करती थीं। एक बार उनमें से एक अप्सरा के पांव में भांटे का काँटा चुभ गया, अतः उसका पुण्य क्षीण होने से उसकी बाकाश में उड़ने की दिव्यगति नष्ट होगई अतएव बाटिका ही में रह गई। यह वार्ता मालियों से सुनके श्रीरुक्माङ्गदजी ने, स्वयं वहां पहुँच के उस अप्सरा को (श्रीरामकृपा से अकाम दृष्टि से ही) देखा, और प्रसन्न होके उससे पूछा कि "तुम्हारे स्वर्ग जाने का कोई उपाय हो तो बताया कि जिससे हम तुमको स्वर्ग को भेज दें॥" उस अप्सरा ने उत्तर दिया कि “जिसने 'एकादशी का व्रत किया हो, वह यदि अपने एक एकादशी के व्रत का फल संकल्प करके जल मेरे हाथ में दे देवे तो मैं स्वर्ग को चली जाऊँ" राजा ने उत्तर दिया कि "इस व्रत का तो नाम भी कोई इस नगर में नहीं जानता ॥" तिसपर अप्सरा बोली कि “कल एकादशी थी, कदाचित् कोई अज्ञात हु से भूखा रह गया हो, तो उसको लाके उसका ही फल मुझको दिलवा दीजिए, तो मैं स्वर्ग को चली जाऊँगी और आपके इस उपकार को सदा मानती गाती रहूँगी।" (९५) टीका । कवित्त । (७४८ ) फेरी नृप डौंडी, सुनि, बनिक की लौड़ी भूखी रही ही कनौड़ी, निशि जागी, उन मारिये । राजा ढिग आनि करि दियो बतदान, गई तिया यो उड़ानि निज लोक को पधारिये ॥महिमा अपार देखि भूप ने विचारी याको “कोउ भन्नखाय ताको बांधि मार डारिय”। याही के प्रभाव भाव भाक्ति विसतार भयो, नयो चोज सुनो सव पुरी लै उधारिये ॥ ८४॥ (५४५)