पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१८४

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InHIMAMRAPHER N M-4-IndngMJDHAMMAine trnartmkrter - iharina m e ramanarauwari भक्तिसुधास्वाद तिलक । (श्रीविश्वामित्रजी को) सम्पूर्ण द्रव्य दिया, तथा अपना पुत्र अपनी रानी और अपना शरीर तक भी नहीं रक्खा तीनों को बेच डाला। श्रीसुरथजीतथा श्रीसुधन्वाजी इन भक्त राजपुत्रों से शंख और लिखित मलीन मनवाले ब्राह्मण, द्वेष एवं भक्तन्द्रोह करते ही मर गए । इन्द्र, सेन पक्षी का रूप धरके एवं अग्नि कपोत का रूप बनाके राजा शिविजी की परीक्षा लेने के निमित्त गए । उनके धर्म की सचाई पर रीझ के प्रगट होके इन्द्र और अग्नि ने बरदान दिया। __ श्रीभरतजी श्रीदधीचिजी, श्रादिक भक्तों की कथा श्रीमद्भागवत ग्रन्थ में गान की हुई हैं ।। इन सबने अपने तन और धन परमार्थ में दे दिये इससे ये धर्म और भगवद्भक्ति की शोभा को प्राप्त हुए। _(७२) महाराज श्रीहरिश्चन्द्रजी। राजा श्रीहरिश्चन्द्रजी सूर्यवंशी श्रीअयोध्याजी के राजा धर्म-कर्म- निष्ठा में बड़े पक्के तथा प्रतापी थे। एक समय इनके कुलपूज्य पुरोहित श्रीवशिष्ठजी महाराज कहीं गए थे इसी से श्रीविश्वामित्रजी से इन्होंने यज्ञ कराया जिनने दक्षिणा में राज्यादि तथा तीन भार (इकोस मन) सोना भी संकल्प करा लिया, और उक्त तीन भार सुवर्ण राजा से बड़ी कड़ाई से मांगा। श्रीवशिष्ठजी आकर राजा से बोले कि "श्रीकाशीजी श्रीविश्वनाथ- पुरी है किसी प्राकृत राज्य के मध्य नहीं गिना जाता सो तुम वहीं कुमार रोहिताश्व तथा रानी समेत अपने आपको वेचकर दक्षिणा का सोना मुनि को दे सकते हो, उसमें विश्वामित्रजी कोई बखेड़ा नहीं लगा सकतें" । तब, श्रीकाशीजी में जाकर राजा के पुत्र और धर्मपत्नी एक । ब्राह्मण के हाथ विके और स्वयं राजा एक चाण्डाल के यहाँ बिका। यों पूर्ण दक्षिणा दे डाली। कालिया चाण्डाल ने इनको मृतक का कर लेने को श्मशान घाट पर रख दिया। १ इन सब की कथा नीचे लिखी जाती है, देखिए ।