पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१६६................ Ha4 -4-. -.. Hi ndi+ 4+HHuadridrani 4unted+A nt- श्रीभक्तमाल सटीक। श्रीकौशिक (विश्वामित्र) जी ने सांप होकर रोहिताश्व को काटा, कुमार मरगया, रानी पुत्र के मृतशरीर को ले रोती पीटती हुई घाट पर गई। उससे भी धर्मात्मा दुःखी राजा ने चाण्डाल (डोम) के लिये कर मांगा ही। और कुछ तो था ही नहीं इसलिये इन्होंने रानी के वस्त्र में से ही आधा फड़वा ले लिया, अपना धर्म न छोड़ा। इन्द्र तथा विश्वा- मित्रजी ने जब राजा को यों दृढ़ पाया, तो वे पुनः दूसरी चाल चले अर्थात् काशीनरेश के पुत्र को मारकर, और श्रीहरिश्चन्द्रजी की निर्दोष रानी को डाकिनी बताकर राजपुत्र के मृत्यु का कलंक उसपर लगाया, यहां तक कि काशीनरेश ने राजा हरिश्चन्द्र ही को उस रानी के मार डालने की आज्ञा दी। इस अन्तिम परीक्षा में भी हरि कृपा से उत्तीर्ण धर्मात्मा श्रीहरिश्चन्द्रजी ने ज्यों ही रानी के वध के अर्थ शन्न उठाया, त्यों ही श्रीसूर्य भगवान ने, निज कुलभूषण पर प्रसन्न हो, आकाश- वाणी की कि"धर्मात्मा हरिश्चन्द्रकी जय," एवं इन्द्रादि ने पुष्पवृष्टि भी की, विष्णु विधाता महेश्वर ने साक्षात् प्रगट होकर दर्शन दे राजा का हाथ रोक लिया, राजकुमार को भी जिला दिया, विष्णुभगवान ने भक्ति वरदान दिया, विश्वामित्र ने भी नरेश को, अपनी सब करतूत कहके, प्रशंसायुत श्रीअयोध्याजी के राज्य करने की आज्ञा दी॥ श्रीसीताराम कृपा से राजा ने भक्ति प्रचार और राज्य कर अपने उसी पुत्र को राज्य दिया, परम धाम को सिधार, जग में अपना और धर्म का यश फैलाया ।। __ (७३-७४) श्रीसुरथ, श्रीसुधन्वाजी। ये दोनों परम भागवत तथा सगे भाई थे, किसी ग्रन्थकार ने लिखा है ये दोनों चम्पकपुरी के राजा हंसध्वज” के पुत्र थे, औरों ने राजा नील- ध्वजजी के पुत्र इन्हें लिखा है, अस्तु । __ इनके पिता ने एक समय अर्जुनजी से युद्ध करने के हेतु यह प्राज्ञा दी कि "सब सेनातुलसीमाला तथा ऊर्द्धवपुण्ड तिलक धारण करके रण- भूमि में आवे और जो कदराई करेगा सो तप्त तेल के कड़ाह में छोड़ा जावेगा।"