पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१८६

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Pintereumen tariet-minsmINITH-Imrani भक्तिसुधास्वाद तिलक ........................ परमभक्त राजकुमार श्रीसुधन्वाजी चलते समय श्रीमातुचरणकमल को दण्डवत् करके निज धर्मपत्नी से विदा होने गये।त्री ने कर जोड़ के प्रार्थना की कि "प्राणनाथ ! मैंने वीधर्म से छुट्टी पा आज ही स्नान किया है तुमसे विशेष प्रेमालिङ्गन चाहती हूँ, मेरे परितोष के अनन्तर स्नान करके, तिलक माला शस्त्रादि सजके तब हरिस्मरण करते हुए सानन्द समरभूमि में जाओ।" श्रीसुधन्वाजी ने, जो "एक नीव्रतधारी" थे, ऐसा ही किया। इसीलिये वह धर्मकर्मनिष्ठा में प्रसिद्ध हुए। रण में विलम्ब के साथ पहुँचने से निज अाज्ञा भंग समझ राजा (इनका पिता) बड़ा अप्रसन्न हुआ और “शंख” तथा “लिखित” नाम के मनमलीन दोब्राह्मण मन्त्रियों ने, देष से, राजा के उस क्रोध को और भड़का दिया। निदान निर्दोष राजकुमार श्रीसुधन्वाजी खोलते तेल के कड़ाह में डाल दिए गये। परन्तु वह तो परम भागवत् थे, भक्तरक्षकहीर की कृपा से तप्त तेल उनको श्रीसरयू जल (शीतल सुखद) हो गया जैसे श्रीप्रह्लादजी को ॥ दो० "पिता विवेक निधान वर, मातु दयायुत नेह । तासु सुवन किमि पाइहै, अनत अटन तजि गेह ॥" शंख और लिखित ने तेल के ताप की परीक्षा के लिये कड़ाह में एक सजल नारियलफल छुड़वाया जो पड़ते ही फूटा, और दो टुकड़े होकर हरिइच्छा से शंख तथा लिखित की खोपड़ियों पर ऐसे जा लगे कि उन दोनों भक्तद्रोहियों के प्राण ही ले लिये ॥ चौपाई। "कर्म प्रधान विश्व करि राखा । जो जस करै सो तस फल चाखा ॥ जो अपराध भक्त कर करई । राम रोष पावक सो जरई ॥ भक्त द्रोह करि कोउ न बांचा । भक्त सुरक्षक हरि पन सांचा ॥" दोनों भाइयों श्रीसुरथ तथा सुधन्वाजी ने श्रीअर्जुनजी से (जिनके । सारथी स्वयं श्रीकृष्ण भगवान थे), भली भांति लड़के रणक्षेत्र में शरीर । त्यागा । उनके शीशों को श्रीशिवजी ने अपनी माला में रख लिया।