पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

श्रीभक्तमाल सटीक । छप्पय । "भस्म अंग, मर्दन अनंग, संतत असंग, हर। सीस गंग, गिरिजा श्रद्धंग, भूखन भुजंग, वर ॥ गल मुण्डमाल, विधुवाल भाल, डमरू कपाल, कर। विबुध बूंद, नवकुमुदचंद, सुखकंद, शूलधर ॥ त्रिपुरारित्रिलोचनदिगवसन विषभोजन भव भय हरन । कहतुलसिदाससेवतसुलभ,शिवशिवशिवशंकर शरन ॥" यों भगवत् के सम्मुख तन तजके, परम भागवत दोनों भाई श्रीभगवत् के धाम को गए। श्रीभक्ति महारानीजी की जय ॥ (७५) राजा श्रीशिविजी। दानशील धर्मधुरन्धर महाराज श्री "शिवि” जी दयासिन्धु "धर्म- कनिष्ठा" में प्रसिद्ध हैं, यहां तक कि इसमें देवतों के राजा इन्द्रजी ने इनकी परीक्षा लेनी चाही। ___ इन्द्र ने आप तो सेन (बाज) पक्षी का रूप धारण किया और अग्नि- देव कपोत बने । सेन कपोत पर झपटा, तब कपोत भागकर श्रीशिबिजी के गोद में जा छुपा और बोला कि "महाराज ! मैं श्रापके शरण हूँ मुझे सेन के चंगुल से अभय देकर रक्षा कीजिये, साथही सेन भी पहुँचा और कहा कि "यह पक्षी मेरा भक्ष्य है, मैं भूखा हूँ, आप मेरे आहार में बाधा न डालिये इसको मुझे दीजिये" राजा ने कहा “मैं न दूंगा। धमधिर्म पर वाद-विवाद के अनन्तर दोनों में प्रसन्नतापूर्वक यह बात ठहरी कि महाराज कपोत के तुल्य मांस अपने शरीर से सेन को दें। राजा कपोत को तुला के एक पल्ले पर बैठाके, दूसरे पल्ले पर अपने शरीर का मांस काट २ तुलवाने लगे। परन्तु समस्त शरीर का मांस भी उस कपोत के तुल्य न हुआ, कवतर भारी होता ही गया। श्रन्त को राजाजी ज्योंही अपना शीश देने पर उद्यत हुए, त्यों ही उसी क्षण अतिप्रसन्न हो, सेन और कपोत का रूप छोड़ छोड़, प्रगट होके,