पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१८८

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MAnkitnapurAPAM-4Hour भक्तिसुधास्वाद तिलक । श्रीसुरेश इन्द्रजी तथा पावकदेव ने दरशन दे, राजा को शीश काटने से रोका, और उनका तन जैसा था पुनः वैसा ही हृष्ट पुष्ट कर दिया, फिर उनकी शरणागतवत्सलता, दानशीलता, दया दृढ़ता आदिक शमों की प्रशंसा कर, वे यह वरदान दे चले गए कि- दो. "जीवत भोगो अति विभव, तनु तजि हरिपुर जाइ। पान करो हरिभक्ति रस, पुनरागमन बिहाइ ॥" (७६) श्रीभरतजी। श्रीमरतजी के पिता का नाम श्रीऋषभदेवजी था। श्राप जो नव योगीश्वरों के बड़े भाई थे, बहुत दिन राज करने के अनन्तर अपने बड़े लड़के को राज देकर बहुत काल पर्य्यन्त मुक्तिनाथक्षेत्र में गंडकीजी के तीर तप करते रहे। एक दिन नदी तट बैठे थे, उसी समय एक गर्भवती हरिणी जल पीने आई, सो सिंह की गर्जना अकस्मात् सुनके ऐसी घबडाइट में कूही कि उसका गर्भपात होगया, और वह मरगई, उसका बच्चा श्रीभरतजी के सामने नदी में बह चला, यह देख दयावश इन्होंने उसको शीघ्र निकाला, तथा असहाय जान,कृपाकर ये उसको निज आश्रम में ला पालने लगे। उसमें इनका मन इतना जगा, उसको इतना चाहने लगे कि उस भृग- शावक की प्रीति में ये बहुत ही आसक्त होगए, यहांतक कि जब वह सयाना हो, मृगाओं के झुण्ड में मिल किसी ओर चला गया, तो उसके लिये ये अत्यन्त विकल हुए। यह आख्यायिका श्रीमद्भागवत में पढ़ने सुनने योग्य है । हो। हरे! मोह, माया, त्रासक्ति, इनकी बातें विलक्षण और अपार हैं। जब इनका शरीर छूटा तो उस राग (स्नेह) तथा मनगति के कारन इनको पुनर्जन्म लेकर मृगा ही होना पड़ा। . जो भरत एक समय सारे भरतखंड के महाराज थे अब वह मृगा होकर कलिंजर के वन में रहने लगे, परन्तु पूर्वभजन और प्रभु की कृपा से हरिण तन में भी आपको पूर्वजन्म की सुधि तथा शुद्ध बुद्धि