पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१८९

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Intempowers maduN १७० श्रीभक्तमाल सटीक। बनी की बनी ही रही, इसी लिये आप भले ही रहा करते थे। कारण रहित कृपाल प्रभु ने उस मृग शरीर से छुड़ाकर भापको ब्राह्मण के घर में जन्म दिया। यहाँ भी 'भरत' नाम पड़ा। श्रीहरिकृपा से ज्ञान तथा दोनों जन्मों की सुधि इनको बनी रही। चौपाई। "निशिदिन लगे रहत हरि ध्याना । का जानत का होत जहाना॥ जिनकी हृदय ग्रन्थि सब छूटीं । सब इन्द्रिय हरिपद महँ जूटीं ॥" आपकी मति बचपन से ही विरक्त और श्रीहरिभक्ति में अनुरक्त हुई। पूर्वघटना स्मरण कर आप किसी से न मिलते न कोई संसारी काम यथार्थ कर देते किसी से बोलते भी न थे वरन् किसी के प्रश्न का उत्तर तक नहीं देते थे। दो० "धन्य रहनि “जड़भरत" की, धन्य तासु वैराग्य । जग से जड़ बनि राम पद, पगे धन्यतर भाग्य ॥ १॥" एक दिन भिल्लों का राजा इनको पकड़वा, अपनी बष्टदेवी काली के सामने ले जाकर खा ले इन्हें बलि देने को उद्यत हुआ। श्रीदुगा- जी महारानी ने वही खङ्ग छीनके उन सब दुष्टों को वध किया और श्रीभगवद्भक्त श्रापको जानकर आपसे अपना अपराध क्षमा कराया। भक्तभयहारिणी श्रीभगवती महामाया की जय ॥ चौपाई। "श्रीसियराम कृपा जाही पर। सुर नर मुनि प्रसन्न ताही पर॥" राजा रहूगण की कथा में लिख आए हैं कि एक बेर उसने श्राप- को पालकी में लगाया, श्राप चींटियाँ बचाकर पग धरते थे जिससे पालकी उचकी तो आपसे उसने कड़ाई के साथ बात की, आपने ऐसे उत्तर दिये कि शीघ्र वह श्रीचरणों पर गिरा, तथा श्रापके सत्सङ्ग से ज्ञान विराग प्राप्त किया, सो यह संवाद श्रीभागवत में पढ़ने सुनने ही योग्य है । अस्तु ॥ समय पा, योगाभ्यास से तनु त्याग, श्रीजड़भरतजी परम धाम को गए॥