पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१९०

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AMARHITHEIA-PMEUM A RigurenerammIHAR ..011-1-1-1148. ganduीनामा भक्तिसुधास्वाद तिलक । (७७) श्रीदधीचिजी। परमोदार दधीचि ऋषि का सुयश प्रसिद्ध ही है । वृत्रासुर के उत्पात से अकुलाके देवता भगवत् के शरण में गए, तब प्रभु ने आज्ञा दी कि "ऋषीश्वर दधीचि महाराज की हड्डी का वज्र बनानो तो इस उपाय से असुर का नाश होगा, मुनि महादानी धम्मात्मा हैं, अस्थि माँगने पर 'नाही नहीं कहेंगे। ऐसा ही किया। ऋषि ने अपनी पीठ की अस्थि दे डाली उसी का वज्र इन्द्र ने बनवाकर उसी से वृत्रासुर का वध किया। चौपाई। "ते नर बर थोड़े जग माहीं । मंगन लहहिं न जिनके नाहीं॥ शिविदधीचिहरिचन्द कहानी । सुनी न चित दे ते नहिं दानी ॥" (७८) श्रीविन्ध्यावलीजी। - (९८) टीका । कवित्त । (७४५) . विन्ध्यावली तिया सीन देखी कहूँ, तिया नैन, बाँध्यो प्रभु पिया, देखि किया मन चौगुनो । “करि भभिमान, दान देन बैठ्यो तुमहीं को, कियो अपमान मैं तो मान्यों सुख सौगुनों" ॥ त्रिभुवन छोनि लिये, दिये बैरी देवतान मान मात्र रहे, हरि अान्यों नहीं औगुनौ। ऐसी भक्ति होइ, जो पैजागो रहो सोई, अहो । रहो। भव मांझ ऐपै लागे नहीं भौ गुनौ॥८७॥ (५४२) वातिक तिलक । जैसी राजा बलि (पृष्ठ ६८) की-बी श्रीविन्ध्यावलीजी थी. वैसी मी तो कहीं देखने सुनने में नहीं आती कि श्रीवामन भगवान ने इनके प्रियपति को बाँध डाला और इन्होंने उनको बँधे हुए अपने नेत्रों से देखा तिसपर भी इनका मन मलीन न हुआ वरंच प्रभु की कृपा समझ चित्त में चौगुना हर्ष बढ़ाया। __प्रभु से ये प्रार्थना करने लगी कि “प्रभो। आपने बहुत अच्छा किया, ये अभिमान करके, त्रिभुवन के नाथ स्वयं आपको दान देने