पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१९१

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upMMeafnergiB8AMMed-NA नी+Hamann..4- 14+ १५२ ,श्रीभक्तमाल सटीक । बैठे, आपकी ही तो पृथ्वी, तिसको अपनी समझके, अपने को दानी मान, इन्होंने जो आपको भिक्षुक माना, सो यही बड़ा अपमान किया। आपने इनका अभिमान छुड़ाया, इससे मैंने शतगुण सुख माना॥" देखिये । त्रिभुवन को इनसे छोनि के इनके शत्रु देवतों को दे डाला और केवल प्राणमात्र इनके रहगए, तब भी श्रीविन्ध्यावलीजी ने प्रभु में अवगुण नहीं आरोपण किया वरंच गुण ही समझा ॥ - 'अहा ! जो कदाचित् ऐसी प्रवल भक्ति जिसके हो, सो जन चाहे भजन करता हुआ जागता रहे, चाहे प्रभु पर विश्वास कर निश्चिन्त सोता हुआ संसार ही में रहे तथापि उसकोसंसार के कोई गुण स्पर्श नहीं कर सकते । वह भक्त जीवन्मुक्त ही है। अति सुमति रानी श्रीविन्ध्यावली की प्रेमाभक्तिनिष्ठा की प्रशंसा कौन कर सकता है ?॥ ----- (७६-८०) श्रीमोरध्वजजी,श्रीताम्रध्वजजी। (९९) टीका । कवित्त । (७४४) अर्जुन के गर्ने भयो, कृष्ण प्रभु जानि लयो, दयो रस भारी, याहि राग ज्यों लिटाइयै । “मेरो एक भक्त आहि, तोको लै दिखाऊँ ताहि, भए विष वृद्ध, संग बाल, चलि जाइये ॥ पहुँचत भाष्यो नाइ “मोरध्वज राजा कहाँ ? बेगि सुधि देवो" काहू बात जा जनाइौ । “सेवा" प्रभु करौं, नेकु रहौ, पाँउ धरौं, जाइ कहौ तुम बैठो, कही, आग सी लगा- इसे ॥८॥ (५४१) .वात्तिक तिलक । एक समय श्रीअर्जुनजी को अपनी भक्ति का अभिमान हुआ । इस वात को भगवान श्रीकृष्णचन्द्रजी ने जानकर मन में विचार किया कि "इनको हमने अपना भारी संख्यरस दिया तिसका अभिमान इनको रोग सरीखा हो गया, सो उसको यत्ररूपी ओषधि से मिटा डालूँ ।" - ऐसा विचारकर अर्जुनजी से बोले कि "हे सखे ! मेरा एक भक्त है चलो मैं उसको तुम्हें दिखा लाऊँ। तुम ब्राह्मण का बालक वन