पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१९३

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१७४ श्रीभक्तमाल सटीक ............. आनन्द पाया, फिर परीक्षा लेने का विचार जो आपके हृदय में है तिससे चित्त में प्रसन्न होके राजा से यों बोले ॥ (१०१ ) टीका । कवित्त ! ( ७४२ ) "देवे की प्रतिज्ञा करो", "करी ज प्रतिज्ञा हम, जाहि भाँति सुख तुम्हें सोई मोको भाई है"। "मिल्यो मग सिंह यहि बालक को खाए जात, कहो खावो मोहिं नहीं यही सुखदाई है।" "काहू भाँति छोड़ो" ? "नृप श्राधो जो शरीर थावे तोही याहि तजौं,” कहि बात मो जनाई है। बोलि उठी तिया “अरधंगी मोहिं जाइ देवो,” पुत्र कहै “मोको लेवों", "और सुधि आई है" ।। ६० ॥ (५३६) .... __ वातिक तिलक । ब्राह्मण--हे राजा! तुम देने की प्रतिज्ञा करो तो मैं कहूँ । राजा-मैंने प्रतिज्ञा की, जिस प्रकार से आपको सुख हो, सोई मुझे परम प्रिय है, मैं वही करूँगा। बाह्मण- हमको मार्ग में एक अद्भुत सिंह मिला सो इस बालक को खाए जाता था। मैंने उससे कहा कि “हे सिंह ! तुम इसको तो छोड़ दो और मुझे खा लो।" परन्तु सिंह बोला कि "मुझको इसी के मांस खाने से सुख होगा।" तब मैंने पूछा कि "भला किसी प्रकार से तुम इस बालक को छोड़ सकते हो ?" उसने उत्तर दिया कि "हाँ, यदि राजा मोरध्वज का आधा शरीर पाऊँ, तब ही तो इसको न खाऊँगा" इस भाँति वार्ता उसने कही है। श्रीमोरध्वजजी की रानी (विन से)-मैं राजा की अाङ्ग ही हूँ। मुझे ही ले चलिये, उसको दे दीजिये, खा जावे ॥ __ श्रीमोरध्वजजी का पुत्र ताम्रध्वज-मैं राजा का प्रात्मज अतः दूसरा शरीर ही हूँ, मुझे ही उस सिंह को दे दीजिये कि खा ले क्योंकि उसको वालक का मांस बहुत प्रिय है। , ब्राह्मण-हाँ, उसकी कही हुई एक बात मैं भूल गया था सो अब सुधि पाई है, सुनो। १"भाई"- सुहाई, नीक वा भली लगी, सुखदाई हुई।