पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१७५ MAHAJiangareranumar +--11- 140-no.414-art-41 भक्तिसुधास्वाद तिलक । ...............१७५ (१०२) टीका । कवित्त । (७४१) सुनो एक बात “सुत तिया ले करौंत गात चीर धीरै भार नाहि," पीछे उन भाखिये। कीन्यो वाही भाँति, अहो नासा लगि आयो जब, ढरयो ग नीर, भीर वाकर न चाखिये ॥ चले अनखाय गहि पाँय सो सुनाये बैन "नैन जल वायों अंग, काम किहि नाखिये।" सुनि भरि आयो हियो, निज तनु श्याम कियो, दियो सुख रूप, व्यथा गई, अभिलाषिये ॥ ६॥ (५३८) वात्तिक तिलक । उस सिंह ने पीछे से यह एक बात कही सो भी सुनो कि "प्राधा अंग यों ही न लाना, वरन् इस भाँति से चीर के दाहिना अंग लाना कि आरा का एक छोर राजा का पुत्र, तथा दूसरा चोर उनकी रानी पकड़े और दोनों धारे धारे चारें, पर तीनों मन को दृढ़ रक्खें कोई कदराय नहीं ॥" श्रीरामकृपा से तीनों ने ऐसा ही किया । अहाहा । ये भगवत् कृपापात्र धन्य हैं। जब चीरते चीरते श्रारा नासिकापर्यन्त आया, तब राजा की बाई आँख से आँसू निकलने लगा।यह देख ब्राह्मणदेव बोल उठे कि “राजा। तुम कदरा गए, रोने लगे, तिससे वह तुम्हारा मांस नहीं खाएगा और इतना कह ििसयाके चल भी दिये। ब्रह्मण्यशिरोमणि राजा ने विप्रदेव के चरण पकड़ के प्रार्थना की कि "हे द्विजदेवजी | देखिये, मेरे दाहिने नेत्र में अश्रुबिन्दु का लेश भी नहीं है कि जो ब्राह्मण के अर्थ लगा, हाँ, बाँई आँख से आँसू इस कारण से चलता है कि वाम अंग आपके कार्य में न आया, व्यर्थ ही फेंक दिया जायगा ।" __ यह भावयुक्त वचन सुनते ही अपार करुणा से आपका हृदय भर आया, और अपने सुन्दर श्याम शरीर को प्रगट करके सपरिवार भक्तराज को दर्शन दिये तथा सिर पर करस्पर्श कर घाव और व्यथा करौत"-आरा, अरकस । २"भीर"-डरे, कादर हो। ३ "वाकर"-उस करके, तिससे ४ "नाखिये"-पटकना । । ।