पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१९५

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MOHI-वन+ न+ManAnd+ 11. DHM.Burga १७६ श्रीभक्तमाल सटीक। दोनों का नाश करके अभूत सुख दिया। राजा अति अभिलाषपूर्वक दर्शनानन्द में मग्न हो गए। • श्रीकृष्ण भगवान को यह अभिलाषा उत्पन्न हुई कि राजा कुछ वरदान माँगे॥ (१०३) टीका । कवित्त । (७४०) “मो पै तो दियो न जाइ निपट रिझाइ लियो, तऊं रीमि दिये विना मेरे हिये साल है। माँगौ वर कोटि, चोट बदली न चूकत है, सूकते है मुख, सुधि पाए वही हाल है ॥” बोल्यो भक्तराज “तुम बड़े महाराज, कोऊ थोरोऊ करत काज, मानो कृत जाले है । एक मोको दीजै दान" "दीयोज बखानो बेगि", "साधु पै परीक्षा जनि करो कलिकाल है"॥ ६२ ॥ (५३७) वात्तिक तिलक। श्रीप्रभु ने भक्तराज से कहा कि "जैसा तुमने अपना शरीर चीर के दिया वैसा मुझसे तो नहीं दिया जाता, और अब जो इसका पलटा मैं तुमको दिया चाहता हूँ तो भी इसके योग्य की तो कोई वस्तु है ही नहीं, इससे सो भी मुझसे नहीं दिया जाता, क्योंकि तुमने मुझको अत्यन्त ही रिझा लिया। तथापि कुछ रीझकर (पारितोषिक ) दिये विना मेरे हिये का साल मिटता नहीं, अतः यदि करोड़ों वरदान माँगो तो भी जो चोट मैंने तुम्हें दी है उसका पलटा चुक नहीं सकता, इसलिये कुछ अवश्य मांगो। हे प्रिय भक्त । तुम्हारी उस दशा की सुधि पाने से मेरा मुख सूख जाता है, और क्या कहूँ॥ श्रीभक्तराजजी प्रेम से विह्वल हो हाथ जोड़के बोले कि "नाथ | श्राप बड़े महाराज हैं जो कोई थोड़ा भी भला कार्य करे उसको आप अपनी कृतज्ञता से सुकृतों का पुंज मान लेते हैं।" . . . चौपाई। . "जेहि समान अतिशय नहिं कोई । ताकर शील कस न अस होई ॥". । १"त"--तथापि, तिस पर भी।२"सूकत" सूखता है। ३ "जाल" समूह । . AM