पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२०

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भक्तिसुधास्वाद तिलक................ के श्रवणरूपी उपटन के अनन्तर] योग्य ही है, तथा दयारूपी अङ्गप्रक्षालन और नवनि (नम्रता) रूपी वसन (वन) की आवश्यकता भी, भक्ति के और और अनेक सुसाधनों से पूर्व ही समझना चाहिये । क्योंकि यह तो प्रसिद्ध ही है कि उपटन, स्नान, तथा वसन, सब शृङ्गारों और भूषणों से पहिले ही अत्यावश्यकीय हैं। सो० "विद्या, बोध, विवेक, सुमति, ज्ञान, सद्गुणअमित । श्रीहरिरहस अनेक, प्राप्ति श्रवण' ते, रामहित ॥ ___चौपाई। मनन विना है विद्या भार। “मननशील” सद्गुण आगार ।। विधुवदनी सवभांति सँवारी । सोह न वसन विना वरनारी ॥ ५. अँगुकाइब (अङ्गप्रक्षालन)="दया" । करुणा से द्रवना, क्षमा करनी, छोह से पघिलना, कृपा से पसीजना, अहिंसा, अनुकम्पा, भलेबुरे जीवमात्र के क्लेश को देख सुनके दुखी होना। दो० "दया धम्मको मूल है, यह प्रसिद्ध जगमाहि । शासनिपुण कैसोउ कोउ, भक्ति “दया" विनु नाहि ॥" चौपाई। "परहित बस जिनके मन माहीं । तिनकह जग दुर्लभ कछु नाहीं ॥" ६. वसन (विशुद्ध सुन्दर अनुकूल वस्त्र)="नवनि" मान अहङ्कार अभिमान मदादिकाअभाव,नम्रता,प्रणता,दीनता, कार्पण्य,झुकना,पूर्व हो वन्दना दण्डवत् करना, दूसरे के प्रणाम नमस्कार की कदापि प्रतीक्षा न करनी, अपनी निचाई समझना, अपने दोषों को कदापि न भूलना, श्रीगौरी गणपति विधाता गुरु त्रिपुरारि तमारि तो ईश ही हैं, ऋषि मुनि सुर महिसुर गो पितर माता-पिता तो पूज्य हैं ही, किन्तु नरनारी गन्धर्व दनुज प्रेत और भूतमात्र को प्रणाम करके उनसे अविरल अमल "श्रीहरिभक्ति” की भीख मांगनी, भगवत् के अनन्य भक्तों की शोभा है॥ चौपाई। "तब रामहि विलोकि वैदेही । सभय हृदय बिनवति जेहि तेही ॥ प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना। बोला वचन विगत अभिमाना॥