पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२००

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terranAMPA भक्तिसुधास्वाद तिलक ।........... आकाशवृत्ति लई है। भूखे को न देखि सके, भावै सो उठाइ देत, नेति नहिं करें भूखे देह छीन भई है। चालिस-ओ-श्राठ दिन पाछे जल अन्न श्रायो, दियो चिप शूद्ध नीच श्वान, यह नई है । हरि ही निहारे उन माँझ, तब आए प्रभु, भाए, जग दुख जिते भोगी, भक्ति छई है ॥६४॥ (५३५) वात्तिक । तिलक ___ राजा दुष्यन्त के वंश में महाराज श्रीरन्तिदेवजी प्रतिमाश्चर्य प्रशंसनीय सन्त हुए कि जिन्होंने आकाशवृति जीविका ग्रहण की। तिस पर भी उस भाकाशवृत्ति में भी जो कुछ भोजन आ जाता था सो भी भूखों को दे दिया करते थे क्योंकि किसी को भूखा नहीं देख सकते थे। अपने लिये यत्न वा संचय नहीं करते थे, अतएव भूख से शरीर अति दुर्वल हो गया। __ एक बेर अड़तालीस उपवास हो चुकने पर अन्न जल हरिकृपा से आया सो प्रथम एक भूखे ब्राह्मण को खिलाया, फिर उसके पीछे एक भूखे शूद्र को दिया, पुनः एक नीच को और फिर शेष भूखे श्वान को खिला पिला दिया। यह इनकी कृपालुता तथा समदृष्टि की नवीन रीति है, क्योंकि सबों में वे सर्वात्मा हरि ही को देखते थे। जब जलपर्यन्त भी दे दिया और आप भूखे वरंच प्यासे रह गये, तब इनकी दया और समदृष्टि देखके प्रभु ने आके दर्शन दिया परम कृतार्थ किया। प्रभु को प्रसन्न पा यह वर माँगा कि सब जीवमात्र का दुःख मैं ही भोगूं और वे सबके सब दुःखरहित हो जायें ॥ प्रभु अति प्रसन्न हो उनको बी पुत्र तथा पुत्रवधू तीनों सहित विमान पर बैठाके निज लोक को ले गये। ऐसे विलक्षण सन्त थे तब तो उनकी भक्ति की महिमा जग में छा रही है। १“आकाशवृत्ति =ऐसी वृत्ति कि जीविका के अर्थ कर्म चेष्टा शून्य ; ऐसी वृत्ति कि जो कुछ अनाधित अकस्मात् (बिना प्रबन्ध जैसे भाकाश से जल) आ जाये, उसी को लेना। २"चीन"=क्षीण, खिन्न, दुर्बल ।