पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१५२ श्रीभक्तमाल सटीक। - - - + rt-1-441+teen (८३)श्रीगृह निषादजी। . जिस समय श्रीभरतजी महाराज प्रभु के दर्शन को चित्रकूट जा रहे थे, उस समय कुछ और संदेह होने के कारण, श्रीनिषादजी ने पहिले यह चाहा था कि यद्यपि श्रीभरतजी की सेना अपार है तथापि अपनी अतिअल्प सेनासहित अपने को श्रीसीताराम हेतु न्योछावर कर देना चाहिये सो यह संकल्प कर लड़ने के लिये इच्छा की थी। किन्तु जब प्यारे भरतजी को मन कर्म वचन से श्रीसीतारामभक्त पाया,तब श्रीभरतजी की सेवा की। पुनः जिस समय श्रीसर्कार रघुवंशमणि आनंदकंद, लंकापतन का विजय हस्तगत कर, श्रीभरद्वाजजी के आश्रम पहुँचे, उस क्षण निज दूत श्रीपवनसुतजी को अवध श्रीभरतजी की चेष्टा देखने को भेजा और निषादजी से भी श्रीमान अनंत ऐश्वर्या ने अपना सुखागमन निवदेन करने की श्रीहनुमानजी को आज्ञा दी । उसी समय "दुमिल राक्षस" को जो श्रीअयोध्यानिवासी जनों को दुःख देने को प्राप्त था, निषादराज ने शृङ्गवेरपुर ही में यह विचार रोक डाला, कि “यह दुष्ट स्वामिपुर को न जाने पावे, वरन् बीच ही में इसको यमद्धार दिखलाऊँ ।" तीन सहस्र धनुर्धरों को साथ ले, “झुमिल" से श्रीनिषादराजजी तीन दिन से युद्ध कर रहे थे, उस समय तक निषादराज दुमिल की सात सहस्र सेना मार चुके थे, शेष तीन सहस्र सेना थी, परन्तु निषादराज बड़े थके तथा कुछ हत पराक्रम प्रतीयमान होते थे। वहीं उसी क्षण पहुँचते ही श्रीरामदूतजी ने हाँक दिया कि जिसमें निषादराज का वल संवर्द्धन हो "मैं श्रीरामदूत पहुँच गया।" यह हॉक सुनाकर तीन सहस्र राक्षसों को लागूल में लपेट वायुमण्डल को पहुँचा दिया, और निषादराजजी ने द्रुमिल के साथ मल्लयुद्ध करके उसको पृथ्वी में पटक, उसके हृदय में शव चुभा दिया, जिससे द्रुमिल का प्राणान्त हो गया। इसके अनन्तर दोनों श्रीरामप्रेमी परस्पर मिले, और निषादराज से स्वामि भागमन जना करके श्रीमारुति-