पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२०२

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+10+Ho+Hrentre भक्तिसुधास्वाद तिलक । १८३ जी भरतजी के समीप चले गये। श्रीनिषादराजजी श्रीभरदाजजी के श्राश्रम को प्राणनाथ से मिलने चले ॥ छन्द ।। "पदकमल धोइ चढाइ नाव न नाथ उतराई चहौं । मोहि राम ! राउर आन दसरथ सपथ सब साँची कहाँ । बरु तीर मारहिं लषन पै जब लगि न पाँव पखारिहौं। तबलगि न तुलसीदास नाथ कृपालु पार उतारिहीं ॥ १॥ (कवित्त) “प्रभुरुख पाइकै बुलाय वाल घरनी को, बन्दि के चरण चहुँदिशि बैठे घेरि घेरि । छोटोसो कठौतो भरि आनि पानी गंगाजी को, धोइ पाँय पियत पुनीतं वारि फेरि फेरि ।। तुलसी सराहें ताको भाग सानुराग, सुर बरषि सुमन जय जय कह टेरि टेरि । विविध सनेह सानी बानी असयानी सुनि, इसे राघौ जानकी लपनतन दो “पदपखारि, जलपान करि, आपु सहित परिवार । पितर पार करि प्रभुहि पुनि, मुदित गयउ लेइ पार ।। १॥" ( १०७ ) टीका । कवित्त ( ७३६ ) भीलन को राजा "गुह" राम अभिराम प्रीति भयो वनवास, मिल्यो मारग में प्राइकै । करौ यह राज ज विराजि सुख दीजै मोको, बोले चैनेसाज तज्यों भाज्ञा पितु पाइकै ।। दारुण वियोग अकुलात हग अश्रुपात पाछे लोहु जातं, वह सके कौन गाइकै । रहे नैन मूदि "रघुनाथ विन देखी कहा ?” अहा ! प्रेम रीति, मेरे हिये रही बाइक ।। ६५ ॥ (५३४) वार्तिक तिलक । सम्पूर्ण वनवासी भिल्लों के राजा शृङ्गवेरपुरवासी श्रीगुहनिषाद- राजजी की, प्राणनाथ शोभाधाम श्रीरामचन्द्र कृपालुजी से अतिशय अभिराम प्रीति थी कि जिनको प्राणनाथ आत्मसमान सखा मानते कहते थे। सो जब श्रीप्रभु वनविहार मिसु सुर मुनिजनों का "चनसाज"=राज्य । २ "जात"=वहता था, झरता था, निकलता था।