पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२०३

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१८४ श्रीभक्तमाल, सटीक। Immu tatuentra-80 दुःख छुड़ाने के लिये चलके, श्रीगंगाकूल में शृङ्गवेरपुर के समीप पाए, तब निषादजी श्रीप्रभु का वनगमन सुन, पगों से चलके, समाजसहित प्राणनाथ से मिले । प्रभु ने हृदय से लगाके अपने परम समीप बैठा लिया। तब निषादराज हाथ जोड़ बोले कि "हे सुखराशि, रघुवीरजी। चलिये, यह राज्य भापका ही है, यहीं विराज, राज्य करते हुए, मुझे सुख दीजिये, मैं श्रापका सेवक हूँ, आप मेरे स्वामी हैं, मैं सब प्रकार से सेवा ___ यह सुन, प्राणेश्वर श्रीरघुनन्दनजी ने उत्तर दिया कि "हे सखे ! इस बात को क्या कहना है, आपका राज्य तथा आप मेरे हैं ही, परन्तु मैं तो श्रीपिताजी की आज्ञा से राज्यभोग सुख सामग्री त्याग के चला हूँ चौदह वर्षपर्यन्त वन ही में बदूंगा।" इतना सुनते ही श्रीनिषादराज विकल हो गए। तब श्रीमाणपति प्रभुबहुत प्रकार से इनको समझाके श्रीचित्रकूट में जा बसे॥ दो० "गमन समय अंचल गह्यो, बाड़न कयो सुजान। ___प्राणपियारे । प्रथम ही, अंचल तजौं कि पान?" यहाँ श्रीनिषादराजजी अपने प्राणप्रिय मित्र के दारुण वियोग से अत्यन्त व्याकुल हुए, आँखों से अश्रुपात की धारा निरन्तर बहने लगी, यहाँ तक कि कुछ दिन पीछे नेत्रों से रक्त टपकने लगा।हा! वह दशा कौन कह सकता है। प्रेमनिधि निषादजी अपनी माँखें मूंदे ही रहा करते थे, इस विचार से कि "मित्रवर प्राणप्रिय श्रीरघुनाथजी के बिना और क्या देखू ?" अहा ! यह इनके परम प्रेम की रीति मेरे हृदय में छा रही है मुख से कहते नहीं बनती। दो०"जासु संग सुख लहि रह्यों, सारे दुख विसराइ। - ता प्रियतम के विरह में, छुटत न यह तनु हाइ!" सर्वया । 'प्रीति की रीति कळू नहिं राखत जाति न पाँति नहीं कुल गारो। प्रेम के नेम कहूँ नहिं दीसत लाज न कानि, लग्यो सब खारो॥