पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२०४

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भक्तिसुधास्वाद तिलक । +Arti ++ + ++ +at+14 Hua a r411M Namt++ लीन भयो हरि सो अभ्यन्तर, पाठहु याम रहै मतवारो। "सुन्दर" कोउ न जानि सबै यह प्रेम के गाँव को पैड़ोहि न्यारो ॥" 'सदन मोरे, पावो हो बाँके यार ! दशरथ राजकुमार ।। कित गयो ? हाय ! विहाय सेज को करद करेजे मार॥ हाय निहारत डगर तिहारी, होइ गई मिनुसार ॥ कित जाऊँ ? पाऊँ कहँ तुमको !, जग मोको अँधियार ॥ तुम्हरे कारन, हम सब त्यागा, लाज काज घर वार॥ विरह बारि बिच, बूड़त तुम विनु, कौन लौ है पार॥ सुधि लीजे, दीजे देखाय छवि, प्रीतम प्राण अधार!॥ जो नहिं अइहो, मैं मरि जहाँ, “जीत" पुकार पुकार ॥" (१०८ ) टोका । कवित्त । ( ७३५ ) चौदह बरस पाछे आए रघुनाथ नाथ, साथ के जे मील कह 'आए प्रभु देखिये ।" बोल्यो “अब पाऊँ कहाँ होति न प्रतीति क्यों, " प्रीति करि मिले राम, कहि “मोको पेखिये" ॥ परसि पिचाने लपाने सुख सागर समाने माण पाये, मानो भाल भाग लेखिये। प्रेम की जू बात क्योहूँ बानी में समात नाहिं अति अकुलात कही कैसे के विशेखिये ।। ६६ ।। (५३३) वात्तिक तिलक । इस प्रकार चौदह वर्ष व्यतीत हुए पर निपादराज के नाथ श्री- रघुनाथजी श्रा, पुष्पक विमान से उतर, श्रीनिषादराज से मिलने को पधारे, सो देख, इनके साथ के भिल्ला ने दौड़ के श्रीनिषादजी से कहा कि "आपके प्रभु आए, आँखें खोल के दर्शन कीजिये।" तब आप बोले कि "मैं प्राणनाथ प्रभु को अब कहाँ पा सकता हूँ, मुझे किसी प्रकार से भी प्रतीति नहीं होती। इतने में स्वयं प्राणप्रिय मित्रवरजी श्रा, हाथों से उनको उठा, सप्रेम हृदय में लगा, कहने लगे कि "सखे ! नयन उधार मुझको १ "पेखिये" -देखिये । २ "पिछाने" =पहिचाने । ३ "क्योहूँ" =किसी भाँति से भी।