पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२०५

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१८६ ......................ाभक्तमाल सटीक। ma.NING.. .HMM .....11am niwara - 14+++44 - देखो॥ श्रीप्रभु के वचनामृत सुन, तथा दिव्य मङ्गल-विग्रह का सुखद स्पर्श पहिचान, ये भलीभीत से लपट गए। श्रीनिषादराज से मिलने का सुख श्रीभक्तवत्सल कृपालुजी को श्री. भरतजी के ही मिलन सुख के समान हुआ, और श्रीनिषादराज जिस असीम आनन्दसिन्धु में मग्न हुए, सो सर्वथा अगाध और अपार ही है। "मृतक शरीर प्राण जनु भेटे" और ये अपने भाल में लिखे सुन्दर भाग्य का पूर्ण उदय जान के धन्यतर कृतार्थ हुए। प्रेम की बातें बाणी में किसी प्रकार समाती ही नहीं, प्रीति की वार्ता वर्षन करने के लिये बुद्धि बानी अतिशय अकुलाती है परन्तु किस विशेषण से उसकी व्याख्या की जा सके। दो० "प्रेम न वारी ऊपजे, प्रेम न हाट विकाय । माथो बदले मिलत है, भावे सो लैजाय ॥ १ ॥ अांखड़ियन झाई पड़ी, पन्थ निहारि निहारि। जीभडिया बाले पड़े, नाम पुकारि पुकारि ॥२॥ छनक चढ़े, छन ऊतरै, सो तो प्रेम न होइ। पाठ पहर भीना रहे, प्रेम कहावै सोइ ॥३॥" (८४) श्रीऋभुजी। श्रीऋभुजी ब्राह्मण के बालक थे एक दिन श्रीउमामहेश्वरजी के मन्दिर हो के चले जा रहे थे, शिवलिङ्ग को बहुत चिकना सुन्दर देख चित्त में पूजन की श्रद्धा हुई, सो एक फूल (जो उस समय इनके हाथ में था) उसको उस विग्रह पर रख के वोले कि "नमः शिवायै च नमः शिवाय ।" श्राशुतोष प्रौढाढस्न महादानी श्रीगिरिजावरजी के मन्दिर से वाणी हुई कि "वर मांग ॥" इन्होंने कर जोड़ के प्रार्थना की कि "महाप्रभो! आपसे भी बड़ा जो कोई परम पुरुष हो, आप कृपा करके उनका दर्शन इस अवोध बालक को अपनी कृपा से करा दीजिये ॥" "देवन के शिर देव विराजत ईश्वर के शिर ईश्वर कहिये। सवैया।