पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२०६

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HAMMADAmbMI +MAN- SAN1-Jan -DAMANMAHBIMIMO भक्तिसुधास्वाद तिलक । लालन के शिर लाल निरंतर खूबन के शिर खूबन लहिये ।। पाकन के शिर पाकशिरोमणि देखि विचार वही हद गहिये। सुन्दर एक सदा सिर ऊपर और कछू हमको नहिं चहिये ॥" इस भारी वर की याचना से श्रीगिरिजापति कुछ विचारने लगे। इतने ही में, अपने भक्तराज महाभागवत परमप्रिय देव-देव महादेव के बचन के पूरा करने के हेतु, श्रीहरि स्वयं वहाँ प्रकट हो गये । करुषा- सागर भक्तवत्सल त्रिभुवनपति जगदाधार शोभाधाम को देखते ही, श्रीशिवजी भी प्रत्यक्ष हो, प्रेम और हर्ष में चकित होते हुए दिजवालक (श्रीऋभुजी) से बोले कि "वत्स ! ले जिन दीनबन्धु ब्रह्मण्यदेव जगत्त्राता प्राणेश्वर को तू द्वंदता था, सो तेरे सुकृतियों के फल कारण- रहित कृपालु यही हैं, तेरे भाग्य धन्य, तू धन्य, तेरी माता और तेरे गुरु धन्य ॥" सवैया। "होत विनोद जितो अभिअंतर सो सुख आप में प्रापही पैये। बाहिर क्यों उमग्यो पुनि श्रावत कंठ ते सुन्दर फेर पठेये ॥ स्वाद निवेर निवेखो न जात मनो गुड़ मूंगहि ज्यों नित रोये।। क्या कहिये कहते न बनै कछु जो कहिये कहते ही लयं ॥" श्रीऋभुजी को भक्ति वरदान देके दोनों अन्तर्धान हो गये। (८५) महाराज श्रीइक्ष्वाकुजी। , श्रीसूर्यवंश में महाराज श्रीइक्ष्वाकुजी बड़े ही प्रतापी हुए आप की । राजधानी यही साकेतपुरी अर्थात् श्रीअयोध्याजी थी, श्राप तपवल से शरीर त्याग कर परमधाम को चले गये। ___ आपने तप करके जब वरदान मांगा था तो, "मुसकाइ कह्यो हरि तेरेइ वंश में खेलिहों औध के माँगन में।" पुराणों में आपकी विचित्र कथा है। उसके लिखने की यहाँ कोई आवश्यकता नहीं देखी। (८६) श्रीऐल (पुरूरवा) जी। राजा पुरूरवा ही का नाम ऐल है क्योंकि उनकी माता इलाजी