पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२२६

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२०७ Admintenant+ H emantuart+ in+Pata n tra+ arretenden भक्तिसुधास्वाद तिलक । ___ वात्तिक तिलक । श्रीधरजी कंसके भेजे हुए मथुराजी से (श्रीव्रज की ओर) अति विरह उत्कण्ठा से चले, यों विचारते हुए कि--- पद-"जे पदपदुम सदा शिवके रह, सिन्धुसुता उरते नहिं टारे। सूरदास तेई पदपंकज, त्रिविध ताप दुख हरन हमारे ॥ दो० व्रजबाला जे पदकमल, रहीं सदा उर लाइ। तेइ पदपंकज देखिहाँ, हौं इन्ह नैनन्ह जाइ । श्रीकृष्ण बलदेवजी का रूप चिन्तवन करते ही आखों से प्रेम जल की धारा बहने लगी, और श्याम गौर छविपूर्ण दोनो भाइयों के दर्शन का मनोरथ भी हृदय में भर आया। सगुन मनाते जाते थे, केवल दर्शनही सुहाता था. इससे अपने शरीर का भान भूल जाया करते थे। इसी दशा से जब श्रीब्रज के समीप पहुँचे, तो मार्ग की धरि में "कमल वन ध्वज अंकुशादि चिह्न युक्त भगवत् के चरण उबटे हुए देखके उनको दण्डवत् कर आप उन्हीं चरणचिह्नों में लोटने लगे और इन्हें प्रीति चाह अतिशय नवीन उत्पन्न हुई उसी से इनकी "जीवन की जड़ी बन्दन भक्ति प्रवीणता" श्रीशुकदेवजी ने श्रीभागवत में भलीभाँति कही है। श्रीवृन्दावन में आप आ पहुँचे, श्रीचलरामजी तथा श्रीकृष्णजी का दर्शन कर, अपना मनोरथ पूर्ण देखा आगे बढ़, जा मिले, छवि- सागर में इनके नेत्र मग्न हो गए और हृदय प्रेम से चूर चूर हो गया । प्रेमपूरित अन्तःकरण से शुभ मार्ग में जिनका चिन्तवन करते चले प्राते थे, यहाँ श्राकर, उनके और विचित्र चरित्रों के अतिरिक्त, यह भी खा कि- सवैया । "सुतदारा श्री गेहकी नेह सबै तजि जाहि विरागी निरन्तर ध्यावें ॥ पम नेम औ धारणा आसन आदि करें नित योगी समाधि लगावें ॥ हिज्ञान श्री ध्यान तें जानें कोऊ सो अनादि अनन्त अखण्ड बता । जाहि अहीर की छोहरियाँ छिया भर छाँछ पै नाच नचावे ॥" जिससे अाप असीम सुख को प्राप्त हुए।-