पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२३

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MAHangularitinutgrapmanMAmarde m on - ना- rang- श्रीभक्तमाल सटीक । कान का अलङ्कार भागवतसेवा को समझिये क्योंकि एक कुछ गुप्त होता है और दूसरा कुछ प्रत्यक्ष सा॥ चौपाई। "उमा । रामस्वभाव जिन जाना। तिनहि भजन तजि भाव न आना। सेवहिं लषण सीयरघुबीरहि । जिमि अविवेकी पुरुष शरीरहि ॥" “सुमिरन, सेवा, प्रीति, प्रतीती। गुरु शरणागति भक्ति कि रीती॥ सीतापतिसेवक सेवकाई । कामधेनु शत सरिस सुहाई।।" १०.सुनथ (नाक की नथिया)="मानसी" अष्टयामरीति, मानस पूजा, भावना, निरन्तर सुरति से स्मरण, सुरति से सप्रेम परिचया, भक्तियोग, ध्यान, गुप्तस्मरण, मनही बन्धन तथा मोक्ष का कारण है ॥ चौपाई। "रहति न प्रभुचित चूक किये की। करत सुरति सौ बार हिये की।" "मन परिहरे चरण जनि भोरे॥” पुनः, "मन तहँ जहँ रघुपति वैदेही ॥" यह वार्ता किसको विदित नहीं है किसब अंगों के शृङ्गारों तथाभूषणों आभरणों में नाक कान और आँखों के ही शृङ्गार मुख्य हैं, पुनातिन में भी नाककीनथिया तो सर्वोत्तम है वरच सुहागही कही और जानी जाती है। ११. अंजन काजल, सुग्मा]="सुसंग” । सत्संग, सन्तसंग, साधु संगति, सम्पदायी सजाती भक्तों का संग, सग्रन्थ विचार, श्रीगुरु- हरिहरिजन चर्चा आदि, तथा, भक्तिशावावलोकन, सज्जन संसर्ग, महात्मा का दरस परस, भागवत धर्मवेत्ता महानुभावों से जिज्ञासा, हरि- भक्त समागम, निजसम्प्रदाय के रहस्य का ज्ञान, सन्तासन्तलक्षण विवेक, श्रीसीताराम गुण स्वभाव का कथन परस्पर ॥ सवैया। “सो जननी, सो पिता, सोई भ्रात, सो भामिनि, सो सुत, सो हित मेरो। सोइ सगो, सो सखा, सोइ सेवक, सो गुरु, सो सुर, साहिब, चेरो॥ सो तुलसी प्रिय प्राण समान, कहाँ लो बनाइ कहाँ बहुतेरो । जो तजि देह को गेह को नेह, सनेह सो राम को होइ सबेरो॥"