पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२३३

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२१४ +++HIMAam 140- 4-Prad +++ navin श्रीभक्तमाल सटीक । उसी वन में राजा शर्याति आखेट को गया। उसकी कन्या तथा कुछ सेना भी साथ थी । उस कन्या ने उसी मिट्टी के ढेरे (बलमीक) में कुछ चमकती सी वस्तु देखके कौतुकवश उसमें लकड़ी खोद दी। उसमें से रुधिर निकल पाया। लड़की बहुत डरी और चुपचाप अपनी सेना में भाग आई। मुनि के उद्धेग पाने से, राजा तथा उसके सब साथियों का अपान- वायु रुक गया। इस प्रकार से सवको अतिकष्ट होने के कारण को बुद्धिमान राजा ने यह ठीक ठीक अनुमान कर लिया कि "किसी ने यहाँ के किसी तपस्वी का कोई अपराध अवश्य किया है।" तब राजा इसकी पच जॉच करने लगा। ___ राजकन्या ने विनय किया कि "पिताजी। मुझ वालिका की अज्ञता से एक तपस्वी के नेत्रों में लकड़ी चुभ गई है। मुझे उसका बड़ा ही पश्चात्ताप तथा भय है।" श्रीमुनिजी की सेवा में [उस कन्या को साथ लिये जाके नृपति ने स्तुति प्रार्थना की। मुनि प्रसन्न हुए।श्रीरामकृपा से सबका कष्टजातारहा॥ राजा, मुनि महाराज को वह कन्या दान कर, अपनी राजधानी श्रीअयोध्याजी में लौट आए॥ __स्वपत्नी के तोषार्थ, श्रीच्यवन ऋषिजी हरिकृपा से अश्विनीकुमार की सहायता से युवावस्था को माप्त हो, विषयभोग करने लगे। __यद्यपि मुनिजी शरीर से तो इतने बड़े भोगी थे, तथापि वास्तव में मन के निर्दोष और परम विरक्त ही थे, क्योंकि भोगाभोग सुख-दुःख से निर्दन्द्ध थे। श्लोक "सुखदुःखे समे कृत्वा, लामालाभौ जयाजयो । ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥ १ ॥ दो. “तुलसी" सीताराम-पद, लगा रहे जो नेह। तो घर घट बन पाट में, कहूँ रहै किन देह ॥ "क्षीणरु पुष्ट शरीर को धर्म जो शीतड्ड उष्ण जरामृत ठाने । भूख तृषा गुण प्राण को व्याप्त शोकर मोहहु भय मन आने । सर्वया ।