पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२३४

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२१५ तपास्वाद तिलक। primsham Pre- + नानी---24Mara desAHamar ...................... बुद्धि विचार करै निशि बासर चित्त चितसे अहं अभिमान ॥ सर्व को प्रेरक सर्व को साधिजु “सुन्दर" आपको न्यारोहिजाने ॥१॥" "एकही कूप ते नीरहि सींचत ईख अफीमहि अम्ब अनाग । होत वही जलस्वाद अनेकनि मिष्ट कटूकान खट्टक खारा॥ त्योहिं उपाधि सँयोगते श्रातम दीसत आय मिल्यो सबिकारा। काढिलिये सुविवेक विचार सों, “सुन्दर” शुद्धस्वरूप है न्यारा ॥ २ ॥" भगवत्कृपा से दम्पति भगवद्भजन से न चूके वरंच भजन प्रभाव से भगवद्धाम को गये ॥ चौपाई। रघुपति चरण प्रीति अति जिनहीं । विषयभोग वश करें कि तिनहीं॥ (१२८) गुरुवर्य श्रीवशिष्ठजी। “वड़ वशिष्ठ सम को जग माहीं ॥" मुनीश्वर अनन्त श्रीवशिष्ठजी महाराज श्रीब्रह्माजी के पुत्र, श्रीरघुकुल के गुरु हैं । श्राप प्रायः सब शाखों के प्राचार्य हैं । स्वर्ग और भूमि के बीच आकाश में बहुतदिन स्थित रहके आपने युगुल सरकारकाभजन किया है ।। “सो गुसाइँ विधिगति निज की ॥” । अपने भजनप्रभाव से एक दूसरे ब्रह्माण्ड में जाके वहाँ के ब्रह्माजी से मिले हैं। उपदेश आदि के लिये आप कई शरीर धारण किये हुए कई स्थान पर रहते हैं, जैसे (१) ब्रह्मलोक में, (२) धर्मराज की सभा और (३) श्रीअवधौ । (४) “सप्तऋषियों" में भी आप हैं । इत्यादि । श्रीविश्वामित्रजी अपार तप करने पर भी "ब्रह्मर्षि" तो तब हुए कि जब श्राप (भगवान श्री १०८ वशिष्ठजी) ने उनको "ब्रह्मर्षि” कहा। परमाचार्य जगद्गुरु महर्षि श्री १०८ वशिष्ठजी महाराज की, तथा, अपने २ श्रीगुरु महाराज की महिमा को जो विचारै सो परम बड़भागी है। - कवित्त । "जग में न कोऊ हितकारी गुरुदेव सों ।। चूड़त भवसागर में श्राय के धंधावै धीर पारह लगाय देत नाव को