पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

-FINA 1-1-HEIRM नानानानन+ M श्रीभक्तमाल सटीक। ज्या खेव सों। परउपकारी सब जीवन के सारे काज कबहूँ न आवै जाके गुणन को छेव सों ।। वचन सुनायकर भ्रम सब दूरि करें "सुन्दर" दिखाय देत अलख अमेव सों। औरहू सुनेहि हम नीके करि देखे शोधि जग में न कोऊ हितकारी गुरुदेव सों ॥१॥" "गुरु की तो महिमा है अधिक गोविंदते ॥" गोविंद के किये जीव जात हैं रसातल को गुरु उपदेश सोतो छुटै यमफंदते । गोविंद के किये जीव वशपरे कर्मनके गुरु के निवाज सूं तो फिरत सुछंदते ॥ गोविंद के किये जीव बूड़त भवसागर में "सुन्दर" कहत गुरु का दुखदंदते । कहाँलो बनाय कछु मुखते कहूँ जु और, गुरु की तो महिमा है अधिक गोविंदते ॥२॥ दो "श्रीवशिष्ठ मुनिनाथयश, कहाँ कवन मुंह लाय । जिन्हें स्वयं श्रीराम ही, लीन्हों गुरू वनाय ॥ १॥" चौपाई। "राम ! सुनहु" मुनि कहकर जोरी । “कृपासिन्धु" बिनती कछु मोरी॥ माहिमा अमित वेद नहिं जाना । मैं केहि भाँति कहउँ भगवाना !॥ उपरोहिती कर्म अति मन्दा । बेद पुराण स्मृति कर निन्दा॥ जब न लेउँ मैं तब विधि मोही। कहा “लाम आगे सुत ! तोही ॥ परमातमा ब्रह्म नर रूपा । होइहि रघुकुलभूषन भूपा"॥" दो. "तब मैं हृदय विचारा, जोग जज्ञ बत दान ॥ जाकहँ करिय सो पइहउँ, धर्म न यहि सम भान ॥ चौपाई। "तव पदपंकज प्रीति निरन्तर । सब साधन कर यह फल सुन्दर । दक्ष सकल लच्छनजुत सोई । जाके पदसरोज रति हो ।” दो. "नाथ ! एक बर माँगउँ, गम | कृपा करि दंहु। जनम जनम प्रभुपदकमल, कबहुँ घटइ जनि नेड्ड' ॥" चौपाई। अस कहि मुनि बशिष्ठ गृह आये । कृपासिंधु के मन अति माये ॥