पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२३६

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anim+44-RINAAMnemunanimu+ ANAMMAug भक्तिसुधास्वाद तिलक २१७ (१२६) श्रीसौभरिजी। श्रीसोभरिजी की कुछ कथा श्रीमान्धाताजी की कथा के अन्तर्गत श्रा चुकी है। श्रीसौभरिजी को जल में मछलियों का विलास देखके विषय- वासना हुई । श्रीमान्धाताजी की कन्याओं को तपबल से अपना युवा स्वरूप दिखाके प्रसन्न कर उनके पिता से माँग लिया, और अपने तप प्रभाव से बड़ा विभव रचके उन पचासों सहित वास किया। बहुत दिन भोग-विलास करने पर मोहनिशा से नींद टूटी और श्रीराम- कृपा से तब मुनिजी महाराज पश्चात्ताप करने तथा सोचने विचारने लगे-- चौपाई। "जप तप नेम जलाशय झारी ।लै श्रीषम सोखै सब नारी ।।" दो० “दीपशिखा सम युवतिजन, मन जनि होसि पतंग। भजसि राम तजि काम मद, करसि सदा सतसंग ।।" सनया । "हे तृष्णा श्रव तौ करि तोषा।। बाद बृथा भटकै निशि वासर दुरि कियो कबहूँ नहिं धोषा। तू हतियारिनि पापिनि कोढ़िनि साँच कहूँ मति मानहिं रोषा। तोहिं मिले तक्ते भयो बंधन तू मरि है तवहीं होय मोषा। "सुन्दर" और कहा कहिये त्वहिं हे तृष्णा ! अबतौ करि तोषा॥ १॥" "हे तृष्णा ! त्वहिं नेक न लाजा॥ तुही भ्रमाय प्रदेश पठावत बूड़तजाय समुद्र जहाजा । • तूही भ्रमाय पहाड़ चढ़ावत बाद बृथा मरिजाय अकाजा॥

त सब लोक नचाय भली विधि भाँड़ किये सब रंकहु राजा।

। "सुन्दर” एतो दुखाय कहाँ अब हे तृष्णा! त्वहिं नेक न लाजा॥२॥" | "भौंह कमान सँधान सुठान जो नारि बिलोकनि बाण ते बाँचे । कोप कृसानु गुमान अँवा घट जे जिनके मन आँच न आँचे ॥

लोभ सबै नट के वश है. कपि ज्यों जग में बहु नाच न नाचे ।

नीके हैं साधु सवै "तुलसी, पैतेई रघुवीर के सेवक साँचे ॥३॥