पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२३९

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२२० श्रीभक्तमाल सटीक । (१३४) श्रीगौतमजी। श्रीसरयू के तट पर जहाँ, (गोदना सेमरिया), कार्तिक पूनो को बहुत सन्त और लोग एकटे होते हैं वहाँ अहल्याजी की सुन्दर मूर्ति है, वही श्रीगौतमजी का आश्रम है । श्राप "न्यायशास्त्र" के प्राचार्य हैं । गुणवती, श्रादरणीया, सुशीला, परमसुन्दरी श्रीअहल्याजी "पंच कन्याओं" ( १ अहल्या, २ द्रोपदी, ३ तारा, ४ कुन्ती, ५ मन्दोदरी) में से प्रसिद्ध हैं ही, बहुतों ने आपकी चाह की तब श्रीब्रह्माजी ने प्राज्ञा दी कि "जो एक दण्ड ( २४ मिनट) भर में त्रिभुवन की परिक्रमा कर आवे उसी को यह कन्या दी जावे ॥" श्रीगौतमजी की सालिग्रामजी में अलौकिक निष्ठा थी, उनके सालि- ग्रामजी ने पाशा की कि तू मेरी प्रदक्षिणा कर ले, इन्होंने ऐसा ही किया। इन्द्रादि जो अपने अपने वाहन ऐरावतादि पर सहर्ष चले थे, सबने अपने अपने आगे ही श्रीगौतमजी को जाते हुए देखा और सबने उनका अग्रगम्य होना स्वीकार किया । इन्द्रादि हाथ मलते रह गए, और श्रीगौतमजी का विवाह श्रीअहल्याजी से हो गया। श्रीगौतमजी की कृपा से श्रीअहल्याजी को प्रभु ने दर्शन दिया। एक समय बड़े दुःकाल में पंचवटी से भाग के मुनिवृन्द श्रीगौतमजी के आश्रम में पाए । तपक्ल से आप सवका आतिथ्य और बहुत सत्कार करते रहे। आपके ही पुत्र महामुनि श्रीशतानन्दजी महाराज हैं कि जो परम- पुनीत श्रीनिमिवंश के गुरु हैं ।। (१३५) परमहंस श्रीशुकदेवजी। श्रीव्यासपुत्र अर्थात् परमहंस श्रीशुकदेवजी की कथा देखिये। गऊ के दूध दुहने में प्रायः जितना काल लगता है, आप उससे अधिक काल पर्यन्त एक समय कहीं नहीं विलम्बते (रुकते ) हैं। आप अमर हैं। आपने श्रीमद्भागवत सुनाके एक ही सप्ताह में भाग्यवान राजा परीक्षित को परमपद को पहुँचा दिया। नंगी स्नान करनेवाली स्त्रियों ने आपको