पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२४६

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- - - tram-IM A NA ++-+-+-+4 भक्तिसुधास्वाद तिलक । २२७ बनें, इसलिये अपार तप किया, और अन्त को, श्रीवशिष्ठजी महाराज की कृपा से.श्रीविधिजीसे विश्वामित्रजी "ब्रह्मर्षि"पद पाके बहुत प्रसन्न हुए। श्रीविश्वामित्रजी को अब यह लालसा बाढ़ी कि-- . "सियपियपदसरोज जब देखौं । सुकृत समूह सफल तव लेखौं ॥" इस मनोरथ से यज्ञ करने लगे, पर ताड़का राक्षसी और उसके पुत्र सुबाहु आदि ने उपद्रव और उत्पात करना प्रारंभ किया । चौपाई। "तव मुनिवर मन कीन्ह विचाग । प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा ।। यहि मिस देखहुँ प्रभुपद जाई । करि विनती आनउँ दोउ भाई ॥" सो० "पुरुषसिंह दोउ वीर, हरषि चले मुनिभयहरन । कृपासिन्धु मतिधीर, अखिल विश्वकारन करन॥" प्रभु ने वापसे अनादि विद्या पढ़ी, और आपको अनन्त श्रीगुरु वशिष्ठजी सम अादर दिया । जय, जय ॥ श्रीविश्वामित्रजी की स्तुति और क्या की जावे ? इससे इति है कि चौपाई। "जिन्हके चरन सरोरुह लागी। करत विविध जप जोग विरागी॥ तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते । गुरुपद कमल पलोटत पीते ॥" (१४४) श्रीदुर्वासाजी। श्रीअत्रिजी की कथा लिखी जा चुकी है कि श्रीदुर्वासाजी उनके पुत्र और रुद्र के अवतार हैं । श्रीब्रह्माजी प्रायः इन्हीं के द्वारा, लोगों को शाप दिलाया करते थे। इनकी कथा पुराणों में बहुत है । समर्थ की ईर्षा कौन कर सकता है ? भगवत् के जितने काम हैं वे गूढ़ हैं। उनकाभेद जानना कठिन है। श्रीअम्बरीषजी के तथा श्रीद्रोपदीजी के सुयश के प्रसङ्ग में कुछ इनकी चरचा इस ग्रंथ में भी हो चुकी है। साठ सहस्त्र वर्ष तप किया, पूरे होने पर श्रीनन्दजी के घर पाए. माता श्रीयशोमतिजी ने प्रेम से अति उत्तम दधि, जिसमें से भगवत् को पवाया था, आपको भी पवाया। श्रीदुर्वासाजी ने अति प्रसन्न होकर