पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२५

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१० . .. 14 .1 d rana. . . . . . . . . . . .. . . . . . . . - . - - - .- श्रीभक्तमाल सटीक । मय्यावश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते। श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमो मताः [१२-२] मय्येव मन अाधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय । निवसिष्यसि मय्येव अत ऊध्वं न संशयः [१२-८] अभ्यासेऽप्यसमर्थोसि मत्कर्मपरमो भव । मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन सिद्धिमवाप्स्यसि" [१२-१.7 चौपाई। "थोरे महँ सब कहाँ बुझाई । सुनहु तात ! मति मन चितलाई ॥ प्रथमहि विप्रचरण अति भीती। निज निज धर्म निरत श्रुति रीती॥ यहि कर फल पुनि विषय विरागा। तब मम चरण उपज अनुरागा॥ श्रवणादिक नव भक्ति हवाही । मम लीला रति अति मन माहीं।। श्लोक-"श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ १ ॥ चौपाई। सन्त चरण पंकज अति प्रेमा । मन क्रम वचन भजन दृढ़ नेमा। गुरु पितु मातु बन्धु पति देवा । सब मोहिकहँ जानै दृढ़ सेवा । मम गुण गावत पुलक शरीरा । गद्गद-गिरा नयन बह नीरा । काम आदि मद दम्भ न जाके । तात निरन्तर बस मैं ताके । दो."मन क्रम वचन कपट तजि, भजन करै निष्काम । तिनके हृदय कमल महँ, करौं सदा विश्राम ॥” ___चौपाई। प्रथम भक्ति सन्तन कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा। दो०"गुरु पद पंकज सेवा, तीसरि भक्ति अमान । चौथि भक्ति मम गुणगण, करै कपट तजिगान ॥" चौपाई। "मन्त्र जाप मम दृढ़ विश्वासा । पंचम भजन सो वेद प्रकाशा ।। छठ दम शील विरति बहु कर्मा । निरत निरन्तर सज्जन धर्मा । सातैव सम मोहिं मय जग देखा । मोते सन्त अधिक करि लेखा