पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

+ 40-rent+ +HI1- 1 0 -1 ma n traMetrievanam + भक्तिसुधास्वाद तिलक । आठव यथा लाभ सन्तोपा । सपने नहिं देखै परदोषा॥ नवम सरल सब सन छलहीना । मम भरोस हिय हरप न दीना॥ सन्मुख होय जीव मोहि जबहीं । जन्म कोटि अघ नाशों तव हीं।। जननी जनक बन्धु सुत दारा । तन धन भवन मुहद परिवारा॥ सव के ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बांध बाट डोरी ॥ समदर्शी इच्छा कछु नाहीं । हर्ष शोक भय नहिं मन माहीं॥ अस सज्जन मम हिय वस कैसे । लोभी हृदय वसै धन जैसे ॥ भक्ति स्वतन्त्र सकल सुखखानी । विनु सतसंग न पावहिं पानी॥ पुण्य पुंज विनु मिलहिं न सन्ता । सतसंगति संसृति कर अन्ता॥ पुण्य एक जगमह नहिं दूजा । मन क्रम वचन विष पद पूजा।। सानुकूल तेहि पर मुनि देवा । जो तजि कपट करै बिज सेवा ॥ दो. औरौ एक गुप्त मत, सवहि कहाँ कर जोरि । शंकर भजन विना नर, भक्ति न पावइ मोरि ॥ चौपाई। . कहहु भगति पथ कौन प्रयासा । योग न मख जप तप उपवासा।। सरल सुभाव न मन कुटिलाई । यथा लाभ सन्तोष सदाई॥

मोर दास कहाइ नर आसा । करै तो कहहु कहाँ विश्वासा॥

बहुत कहीं का कथा वढ़ाई । यहि आचरण वश्य मैं भाई॥ वैर न विग्रह श्रास न त्रासा । सुखमय ताहि सदा सव अासा ॥ अनारम्भ अनिकेत अमानी । अनघ अरोष दक्ष विज्ञानी॥ प्रीति सदा सज्जन संसर्गा । तृण सम विषय स्वर्ग अपवर्गा ॥ भगति पक्ष हठ नहिं शठताई । दुष्ट तर्क सव दूरि बहाई ॥ दो०"मम गुण ग्राम नाम रत, गत ममता मद मोह । ताके सुख सोइ जाने, चिदानन्द सन्दोह ॥" श्रीभक्तमाल सम्पूर्ण ही श्रीः “भक्ति" शब्द का अर्थ ही अर्थ हा तो है, तो फिर अव भक्ति का अर्थ अलग क्या लिखा जावे। • इति "भक्ति के स्वरूप” का संक्षिप्त वर्णन ।