पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२५७

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Augu0. 4 4 २३८ श्रीभक्तमाल सटीक । तो उसी की ओर लपके, परन्तु ऐरावत को देख श्वेत फल अनुमान करके, राहु को भी छोड़ ऐरावत ही की ओर लपके । यह देख इन्द्र ने विना विचारे ही वज्र चला ही तो दिया। राहु के कुसंग का यह फल देखिये। निदान वह वज्र श्रीप्रभंजनसुत के अंग में प्रा लगा। उस पवि- प्रहार से व्यथित हो श्रीपवनजी पर्वत पर आ गिरे, जिससे आपके बाएँ हनु में कुछ चोट पहुँची। श्रीमरुतदेव ने पुत्र को गोद में उठा लिया। कोप करके सारे जगत् से प्रभंजनदेव ने अपनी गति खींच ली। तव तो प्राण के राजा श्रीपवनजी के रुकने से समस्त जीवों को अत्यन्त क्लेश हुथा । मुर मुनि नर नाग गन्धर्व असुर सबके सब, श्वास प्रश्वास पाण अपान के निरोध से विकल हो गए, शरीर की सन्धियाँ अति पीड़ित हो गई। कोई कुछ कर्म धर्म करने योग्य न रहा । देखिये ! एक इन्द्र के अपराध से त्रिलोक दुःखी हो गया। कुमन्त्र तथा कुसंग से कहाँ कष्ट नहीं पहुँचता है। सब प्रजाओं ने इन्द्र के साथ २ श्रीब्रह्माजी के पास जा पुकारा। श्रीविधाताजी सबको साथ लिये वहाँ आए जहाँ श्रीपवन देव श्रीमहा- वीरजी को गोद में लिये आपका मुख अवलोकन कर रहे थे। जगवपिता श्रीविधिजी को अपने निकट देखते ही, श्रीमरुतदेव ने उठके अपने शीश और प्रिय पुत्र दोनों को श्रीविरंचिजी के चरणारविन्द पर रक्खा । प्रभु ने कृपा करके बालक के शीश पर ज्योंही निज इस्तकमल फेरा, त्योंही श्राप सुखी हो गए, तथा आपकी प्रसन्नता के साथ साथ ही त्रैलोक्य के प्राणी भी सब सुखी हुए। श्रीइन्द्रजी ने एक अपूर्व माला श्रीमारुतीजी के गले में पहिराके, और "हनुमान” आपका नाम रखके, आशीष दिया कि अब से मेरे वज्र से इनको कभी कुछ भय नहीं। श्रीगिरिजापति ने भक्ति वर दे अपने शूल से श्रापको निर्भय किया, तथा श्रीविधिजी ने निज ब्रह्मास्त्र से, श्रीकुबेरजी ने अपनी गदा से, श्रीयमजी ने यमदण्ड से एवं श्रीदुर्गाजी ने अपने खड्ग से, वरुणजी ने निज पाश से, और विश्वकर्मा- जी ने अपने सर्व आयुधों से अभयत्व दिया। श्रीसूर्य भगवान ने अपने