पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२५९

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२४० श्रीभक्तमाल सटीक। (१५६)श्रीअङ्गदजी। श्रीसीतारामपदकंज में प्रेम करने ही से लोक परलोक की कोई वार्ता ऐसी नहीं रह जाती जिसमें मतिमान प्रेमी कुशल न हो । श्रीअङ्गद- जी, किष्किन्धाधिप बालि के योग्य पुत्र, अपने पितासम वली ने लंका की रणभूमि में किस कुशलता से प्रशंसित पराक्रम किये कि जिसकी सराहना स्वयं प्रभु ही श्रीमुख से करते हैं । चौपाई। "कह रघुवीर देख रण सीता । लछिमन यहाँ हतेउ इन्द्रजीता ॥ हनूमान अंगद के मारे। रन महिं परे निसाचर भारे॥" त्रैलोक्यविजयी रावण की सभा में कि जहाँ भयवश इन्द्रादिक देवताओं की बुद्धि क्षोभित हो जाया करती थी, किस उत्साह, दृढ़ता, पराक्रम तथा प्रतीति के साथ अपनी बुद्धि को दरशाया कि लङ्का- निवासियों ने आपको श्रीहनुमानजी ही भनुमान किया ॥ सवैया। "अति कोप से रोप्यो है पाँव सभा, सवलंक सशोकित शोर मचा। तमके घननाद से वीर प्रचारिक, हारि निशाचर सैन पचा । न टेरै पग मेरु हु ते गरु भो, सोमनो महि संग विरचिरचा। तुलसी सब शूर सराहत हैं, "जग में बलशालि है बालि-बचा ॥" दो०"रिपुबल धरषि हरषि कपि, बालितनय बलपुंज । पुलक शरीर नयन जल, गहे रामपद कंज ॥" श्रीअवध में आने पर जब सब विदा होने लगे और भापका अवसर आया, तो यहाँ रहने के निमित्त श्रापका इठ श्राग्रह एवं विनय करना ही श्रापके गूढ़ सच्चे प्रेम का यथार्थ चित्र नेत्रों के सामने खींचे देता है। दो० "अङ्गद बचन विनीत सुनि, रघुपति करुणासीव । प्रभु उठाय उरलायऊ, सजल नयन राजीव ॥१॥ सबैया। आनन ओप भयंक सुभावत भावत भाव भरी निपुनाई। है जलजात लजात बिलोकत कोमल पायन की अरुनाई ।। मोहति है मन त्यो ब्रजबल्लभ अगन की छवि कैरि निकाई। कोनं बिकी बिनमोल सखी लखि जानकिनाय की सुन्दरताई।