पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२४५ mmit+Na+rementitate- भक्तिसुधास्वाद तिलक। (१६५) श्रीयशोदाजी। महरि श्रीयशोदाजी की कथा श्रीमद्भागवत, सुखसागर, व्रजविलास तथा प्रेमसागर प्रभृति ग्रन्थों में प्रति प्रसिद्ध है । विशेष कुछ लिखने की भावश्यकता क्या है। हरि-माता की स्तुति क्या कोई साधारण वाता है। (१६६।१६७) रानी श्रीकीर्तिजी, श्रीकृषभानुजी। "श्री'वृषभानुपुरा के ठाकुर 'कीरति अरु वृषभानू । कैधौं श्रानि विसद भुवमण्डल उदित भये वृषभानू ॥" “तिनके श्रानि भवतरी राधा अमित रूप की ढेरी। कीजे काहि बराबर दूजो तीन लोक छविहरी ॥" श्रीकृष्णप्रिया जगज्जननि सुरमुनिवन्दिता भक्तजन इष्टदेवता "श्रीराधाजी” के ही माता पिता, यही तो सब स्तुतियों की अवधि है, वात्सल्य रस के सुखों की खानि के भाग्य की प्रशंसा और बड़ाई कौन कर सकता है और क्योंकर सम्भव है ॥ (१६८ । १६९) श्रीसहचरियाँ, ग्वालमंडल। "जकत चकित चितवति तुम इत उत केहि ठग ठीक ठगी हो। गति डगनि डगमग गति पगनि तुम काके रंग रंगी हो । के काहू तोको भरमायो के चेटक कछु कीन्हो । के काहू तेरो चित चोरो कै लै फेरि न दीन्हो॥" (प्रेमभरी गोपियों की दशा) पियाजी (श्रीराधाजी) की सहचरियों की स्तुति प्रार्थना किये विन, जो कोई श्रीप्रिया प्रियतम के चरणोंकी भक्ति चाहे, उसकी बुद्धि अल्प है। जिन ग्वालिन तथा ग्वाल मण्डल को भगवान् ने अपना करके जाना माना, और श्रीब्रह्मा ऐसे बड़ों के बड़े ने जिनकी कृपा चाही. उनके चरणसरोज की रज अपने मस्तक पर धरने की बांछा करनी अतिशय बड़भागी का चिह्न है ।।