पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२६५

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ment a rnamadinate श्रीभक्तमाल सटीक । "दमकत दिपति देह दामिनसी चमकत चंचल नैना। घूघट विच खेलत खंजन से उडि उड़ि दीठि लगना।। लटकति ललित पीठ पर चोटी विच २ सुमन सँवारी। देखे ताहि मेरु सो श्रावत मनहु भुजंगिनि कारी ॥ कहाँ कहा तोसों हो राधा दिल की नाहिं दुराऊँ। चलि बैठो एकंत कहूँ तो श्रवनन सुधा पियाऊँ ॥" (१७०) श्रीव्रजचन्द्रजी के (१६) षोडश सखा। (१२५) छप्पय । (७१८) ब्रजराज सुवन सँग सदन बन अनुग सदा तत्पर रहें। रक्तक, पत्रकं, और पत्रि, सबही मन भावें। मधुकण्ठी, मधुवतं, रसालं, बिशालं, सुहाचें ॥ प्रेमकन्द, मकरन्द, सदा आनन्द, चन्द्रहासी । पयद, बकुले, रसदान, सा- रदै बुद्धिप्रकासी ॥ सेवासमय बिचारिकै, चारु चतुर चितकी*लहैं । ब्रजराज सुवन सँग सदन बन, अनुग सदा तत्पर रहैं ॥२३॥(१६१) ब्रजराज श्रीनन्दजी के पुत्र श्रीकृष्णचन्द्रजी के साथ साथ घर में और सव वन में ये सब षोडश सेवक सदा सेवा में तत्पर रहते हैं । (१) रक्तकजी (२) पत्रकजी, तथा (३) पत्रीजी, ये तीनों प्रभु के मन में भाते हैं, (४) मधुकण्ठजी (५) मधुवजी (६) रसालजी (७) विशालजी, प्रभु को बहुत सुहाते हैं, (८) प्रेमकन्दजी (1) मकरन्द जी (१०) सदा आनन्दजी (११) चन्द्रहासजी (१२) पयदजी (१३) बकुलजी (१४) रसदानजी (१५) शारदजी और (१६) बुद्धिप्रकाशजी । ये सोलहो चारु चतुर अनुग अपनी अपनी सेवा का समय विचारके श्रीनन्दनन्दनजी के चित्त की रुचि को जान लेते हैं, सोई सोई सेवा किया करते हैं। . इनके भाग्य की बड़ाई किससे हो सकती है ?॥

  • "चित्त को लहै"-मन की रुचि को समझ जाते है।

वार्तिक तिलक।