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भक्तिसुधास्वाद तिलक।

सुना देना चाहिये। यो विचारकर, रात के समय गोपुर (फाटक) पर चढ़ गए और वहाँ ही से चिल्लाके मन्त्रोच्चारण किया, अपूर्व ध्वनि छा गई॥ यह शिक्षा पा, ७२ बहत्तर सिद्ध हो गए। “जिसे चाहे पिया सोती जगावें॥ प्रत्येक की पद्धति न्यारी न्यारी हुई। यह चोज, यह नई रीति गाने योग्य है कि उघर परहित के लिये आपने श्रीगुरु- बाबा-उल्लंघन पापभार अपने शीश पर धर लिया, और इधर भाव- ग्राही गुरु तथा भगवान ने इससे अपनी अतिशय प्रसन्नता प्रगट की।

चौपाई।

"रहति न प्रभु चित चूक किये की। करत सुरति सौ बार हिये की॥"

(१३९) टीका । कवित्त । (७०४)

गए "नीलाचल" जगन्नाथ के देखिये कों, देख्यो अनाचार, सब पंडा दूरि किये हैं। संग लै हजार शिष्य रंग भरि सेवा करें, धरै हिये भाव गूढ दरसाई दिये हैं ।। बोले प्रभु “वेई भावे, करे अंगीकार मैं तो, प्यार ही को लेत, कयूँ औगुन न लिये है"। तऊ दृढ़ कीनी, फिरि कही, नहीं कार्ने दीनी, लीनी बेद बाणी विधि कैसे जात छिये हैं ॥ १०८ ॥ (५२१)

वात्तिक तिलक।

श्रीजगन्नाथजी के दर्शन के लिये (उड़ीसा, पुरुषोत्तमपुरी में) एक बेर आप सहस्र शिष्यों सहित गए वहाँ धोनेमाँजने तथा बरतन चौका भादिक विचार प्राचार का बड़ा प्रभाव पण्डों में देखकर, अनाचार को छुड़ाना चाहा, पण्डों को सेवा से अलग करके बड़े प्रेम से पूजा सेवा करने लगे, महानुभावों के भाव बड़े गूढ़ होते हैं, उनका कहना ही क्या है। ,

परन्तु सीधे पंडे दुखी हुए।

१"नीलाचल" नीलगिरि, उड़ीसा प्रदेश में, जिस पर श्रीजगन्नाथजी का मन्दिर है २"रंगभरि"=प्रेम में पूर्ण होके, पूरी प्रीति से, स्नेह मे भरके । ३ "करे"-किये, कर चुके । ४ "नही कान दीनी"=ध्यान नही दिया, उसके अनुसार चले' नही । ५ "जात छिये है"- क्षय वा नष्ट किये जाते है ॥