पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२८३

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HMMSHA AndndiBOMHHI reatin- HAN+1 1 +H-100 २६४ श्रीभक्तमाल सटीक। नेम से अधिक प्रेम के चाहनेवाले प्रभु ने स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि “मैं पंडों को अंगीकार कर चुका हूँ मैं कदापि दोषों पर दृष्टि नहीं देता, प्रेम ही को ग्रहण किया करता हूँ, वे ही लोग पाकर सेवा करें"। तब भी, भाप अपने प्राचार की रीति में दृढ़ ही रहे। श्रीजगन्नाथजी ने पुनः पुनः आना की, पर मापने एक न सुनी, बरन प्रार्थना की कि प्रभो । देखिये श्रापकी सेवा-विधि वेद में कैसी वर्णित है, भला मैं उन्हें क्योंकर छोड़ सकता हूँ॥ (१४०) टीका । कवित्त । (७०३) . जोरावर भक्त सों बसाइ नहीं, कही किती, रती हूँ न लावं मन चोज दरसायो है । गरुड़ को भाज्ञा दई, सोई मानि लई उन शिष्यनि समेत निज देश छोड़ि आयो है ।। जागि के निहारे, ठोर और ही, मगन भए, दए यों प्रगट करि गूढ़ भाव पायो है । वेई सब सेवा करें, श्याम मन सदा हरे, धेरै साँचों प्रेम, हिय प्रभु जू दिखायो है ॥१०६॥ (५२०) वात्तिक तिलक। - प्रेमयुक्तनेम का बल भी कैसा भारी है कि जिससे स्वयं प्रभु भी हार मान जाते हैं। प्रभु ने कितनी ही कही, परन्तु आपके प्रेमभरे हृदय में एक भी न लगी॥ अन्ततः श्रीजगन्नाथजी ने श्रीगरुड़जी को यात्रा दी कि "इनको सब सेवकों सहित रात्रि ही में श्रीरंगपुरी पहुँचा भाओ।" श्रीखगेशनी ने वैसा ही किया। नींद टूटी तो आपने सबको श्रीजगन्नाथपुरी में न पाकर श्रीरङ्गधाम में देखके शीलसंकोचसिन्धु प्रभु के स्वभाव तथा गूढ़ भाव को देखकर, आप प्रेम में डूब गए। वहाँ, वे ही पंडा लोग फिर सेवापूजा करने लगे। सेवा के विरह वियोग के अनन्तर जो पुनः सेवा की प्राप्ति हुई, इससे उनकी प्रीति दनी हो गई। प्रभु को सदैव अपनी पूजा से प्रति ही प्रसन्न रखने लगे। १ "जोरावर"-बलवन्तः बली, प्रबल । २ "किती"=कितनी हो। ३ "रती"रत्ती एकं माशेका (आठवाँ) भाग, अति अल्प, कुछ भी नही।