पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२९५

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२७६ Bre..HNAMINAM E श्रीभक्तमाल सटीक। (१४७) टीका । कवित्त । (६९६) पाइ लपटाइ अंग धूरि में लुटाए कहैं “करी मनभायो, और दीन बहु भाष्यो है । कही भक्तराज "तुम कृपा मैं समाज पायो, गायो जो पुराणन में रूप ,नैन चायो है"॥ छाँडो उपहास अब करो निज दास हमैं, पूजै हिए आस मन अति अभिलाष्यो है। किये पर- शंस मानो हंस ये परम कोऊ ऐसे जस लाख भाँति घर घर राख्यो है।। ११४॥ (५१५) वात्तिक तिलक। • वे ब्राह्मण श्रीलालाचार्यजी के चरणकमलों में लपट गए, वहाँ की धरि में लोटने लगे, और यों बोले कि "आप महात्मा हैं जिस प्रकार से हम आपको प्रिय लगें सो वैसा कीजिये, अर्थात्, शिष्य करके भगवद्भक्त कीजिये।" इसी प्रकार से बहुत सी दीनतापूर्वक बातें कहीं। श्रीभक्तराज (लालाचार्य) जी ने कहा कि "पापही के न आने । से तो इस दिव्य समाज की सेवा का सौभाग्न मुझे प्राप्त हुआ, अतः आपकी कृपा का मैं धन्यवाद करता हूँ कि जिससे मैंने उन भगवत्पार्षदों के रूप के दर्शन पाए कि जिनका पुराणों में बखान सुना था ॥ तब उन विनों ने पुनः प्रार्थना की कि "अब आप हमारी हँसी तो कीजिये नहीं वरन् दया करके हमको अपना दास बना लीजिये। हम सबों के मन की यह अति अभिलाषा पूर्ण कीजिए ।" तब श्री- लालाचार्यजी ने सबों को श्रीमंत्र तिलक आदिक पंचसंस्कार करके लोक वेद में परमप्रशंसनीय हंसों के समान वेष तथा विवेकयुक्त कर दिया। इत्यादि। इसी प्रकार श्रीलालाचार्यजी के यश, लक्षविधि के, देश में घर घर सब कोई मन में तथा मुख में भी रक्खे अर्थात् गान किए। (६) श्रीश्रुतिप्रज्ञजी। - आप ब्राह्मण थे, लड़कपन से ही बड़े वैरागी तथा नामानुरागी