पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२९६

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२७७ me-PHere +10- ENMADHHHHHHH M PI+HOM4M-40"INHAPHunt भक्तिसुधास्वाद तिलक। रहे, और अपने मन में वैष्णवों में जातिभेद नहीं रखते थे। श्राप देशों में विचरके भगवन्नाम का उपदेश किया करते तथा भक्ति ही का भारी श्राचार समझते थे। नीलाचल के मार्ग में एक अति प्रेमी श्वपच को साष्टाङ्ग करते पाके उठाकर अपने हृदय में लगा लिया और अपने पट से उसके अंग की धूरि झाड़ डाली । उसके हाथों में महाप्रसाद था सो लेके सादर पा गए । रात भर उस प्रेमी श्वपच को अपने साथ रखके सबेरे अतिशय आदरपूर्वक बिदा किया। श्रीजगदीश दर्शन कर, सुयशभाजन रहे और परमधाम को गए। (७)श्रीश्रुतिदेवजी। आप बहुत से सन्तों का समाज साथ में लिये, श्रीरामनाम कीर्तन- पूर्वक विचरते और सब लोगों को कृतार्थ किया करते थे। एक समय एक अभक्त राजा के नगर में पहुँचे जहाँ कोई नदी तालाब नहीं, केवल वापी तथा कूएँ ही राजवाटिकाओं में थे। जब साधु लोग उपवन के कूपों में स्नान करने गये, मालियों ने उनको रोक दिया। सन्त दुःखी हो स्वामीजी से कष्ट निवेदन करने लगे। आपने कहा कि बिना स्नान ही नामकीन कर लो और तब इस नगर को छोड़ चलो। यह आज्ञा सुन इधर सन्त हरिभजन में लगे, उधर कूपों तथा वापियों में जल ही नहीं। मालियों ने जाके राजा से सब वार्ता सुनाई, नरेश ने मन्त्रियों से पूछा,सचिव लोगों ने पूछपाछ बूझ विचारकर निवेदन किया कि “महाराज । यहाँ साधुसमाज पाया है, सन्तों की ही कृपा से यह जलाभाव का कष्ट जा सकेगा, इस समाज के मुखिया श्री- श्रुतिदेव नाम महात्मा हैं, उन्हीं से प्रार्थना करनी चाहिए।" ऐसा ही किया गया। सवप्रजाओं सहित राजा श्रीस्वामीजी के शरणागत हो कृतार्थ हुए। स्वामीजी महाराज उस देश को हरिभक्त बनाकर दूसरी ओर चले ऐसे ऐसे चरित्र आपके अनेक हैं।