पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२९८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२७१ भक्तिसुधास्वाद तिलक। (१०-११) गुरु और शिष्य (पादपद्मजी)। (१४८) छप्पय । (६९५) श्रीमारग उपदेश कृत श्रवण सुनौ आख्यान शुचि॥ गुरु गमन कियो परदेश, शिष्य सुरधुनि दृढ़ाई। इक मंजन इक पान एक हृदय बन्दना कराई। गुरु गंगा में प्रविशि शिष्य को बेगि बुलायो। विष्णुपदी भय जान कमल पत्रन पर धायो ॥ “पादपद्म ता दिन प्रगट, सब प्रसन्न मन परम रुचि। श्रीमारग उपदेश कृत श्रवण सुनो आख्यान शुचि॥३४॥ (१८०) वात्तिक तिलक । एक और श्रीसम्प्रदायवाले भागवत का पवित्र वृत्तान्त सुनिये। इनके गुरु परदेश चले, इनको श्रीगंगाजी में गुरु का भाव दृढ़ रखने के लिये उपदेश दिया, इन्होंने श्रीगुरुमात्रा को हृदय में दृढ़ धारण कर लिया। तब कोई शिष्य स्नान किया करें, कोई पान किया करें परन्तु ये गुरुभक्तजी तो केवल हृदय से ही वन्दन प्रणाम पात्र करते थे। जब श्रीगुरुजी आए, शिष्यों से सब बातें सुनी, तब इनकी भक्तिमहिमा प्रगट करने के हेतु श्रीगंगाजी में जल के भीतर जाके वहीं शिष्य को (इनको) शीघ्र बुलाया, इन्होंने श्रीविष्णुपदी (गंगा) जी के जल पर अपना चरण रखने में संकोच किया, श्रीराम- कृपा से जल में कमल के पत्तों पर पाँव धरते दौड़ते हुए जा पहुँचे। उसी दिन से आपका नाम “पादपद्म" जी हुआ, सब बड़े प्रसन्न हुए और श्रीगंगाजी में तथा इन महात्मा में सबकी भारी श्रद्धा हुई । (१४९) टीका ! कवित्त । (६९४) देवधुनीतीर सो कुटीर, बहु साधु रहैं, रहै गुरुभक्त एक, न्यारो नहिं है सके । चले प्रभु गाँव "जिनि तजो बलि जाँव" करो कही