पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२९९

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२८० श्रीभक्तमाल सटीक । दास सेवा गंगा में ही कैसे ठैव सके। क्रिया सब कूप करे, विष्णुपदी ध्यान धरै, रोष भरे सन्त श्रेणी भाव नहीं [वै सके। आए ईश जानि दुखमानि सो बखान कियो आनि मन जानि वात अंग कैसे वे सकै ॥ ११५॥ (५१४) __ वार्तिक तिलक। इनके गुरु की कुटी श्रीगंगाजी के तट पर थी, उसमें बहुत सन रहा करते थे, साधुसेवा हुआ करती थी। ये बड़े गुरुभक्त थे। औं श्रीगुरुचरणकमल से कभी अलग नहीं रह सकते थे। एक समय गुरु महाराज किसी ग्राम को चले, इन्होंने प्रार्थना की कि "कृपानिधे इस दास को मत छोड़िये मैं आपकी बलिहारी जाऊँ।" श्रीगुरुमहाराज ने बड़ाई की और बाबा दी कि “तुम यहाँ ही रहो, भगवदासों की सेव करो, तथा श्रीगंगाजी को मेरा स्वरूप ही मानो, उनमें गुरुभाव रखो। आप यह प्राज्ञा उल्लंघन नहीं कर सके, और मन में विचार किया कि "श्रीसुरसरिजी में अपने चरणों का स्पर्श क्योंकर होने दूं इसी से श्रीगंगाजी में स्नान तक भी नहीं करते थे, शरीर की सब क्रिया स्नानादिक कूपजल से ही किया करते थे, और श्रीसुरसरिजी को श्रीगुरुरूप मानके प्रणाम और हृदय में ही ध्यान धरते थे। प्राय सन्त इन पर रोष रखते क्योंकि इनके हृदय के भाव को वे लोग पहुँच (जान) नहीं सकते थे। जब श्रीगुरुजी आए, तब सब दुःखित हो उन सबने इनके गंगास्नान न करने की वाची कही। स्वामीजी बात के मर्म को समझ गए कि इसने सच्चा गुरुभाव रखकर यह संकोच किया होगा कि श्रीगंगाजी में अपना अपावन शरीर कैसे धोऊँ पद स्पर्श कैसे करूँ। (१५०) टीका । कवित्त । (६९३) चले लैके न्हान संग, गंग में प्रवेश कियो, रंग भरि बोले सो "अंगोछा बेगि ल्याइये । करत विचार शोच सागर न वारापार, गंगा ज प्रगट कह्यो "कंजन पर आइयें" ॥ चले ई अधर पग धेरै सो मधुर जाइ प्रभु हाथ दिये, लियो, तीर भीर बाइये । निकसत