पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भक्तिसुधास्वाद तिलक । २८९ -modi-Te ...larinema Harinarinantlemantr a छन्द । "अवतरे परेशा मनहुँ दिनेशा सुत दिजेश तनुधारी। पूजित शिवशेषा शुभ उपदेशा तारकमन्त्र प्रचारी॥ कलिकलुष विनाशी प्रेमप्रकाशी सुखराशी दुखहारी। प्रभुइच्छाचारी स्ववश विहारी जगजीवन उपकारी। रक्षक श्रुतिसेतू सतकुलकेतू वन्दित सदा अमानं । निगमादिसुगीतं चरित पुनीतं भवभयशमन निदानं ॥ सेवितवरचरणं चातुरवरणं शरणदकृपानिधान । घदरसरामहिं सियवर संगहि प्रेमभक्ति वरदानं ॥" चौपाई। वयु बुधि विमल पर्दै केहि भाँती । जस शशि पाइ पक्षसित-राती॥ आठ वर्ष के मे मतिवाना । भयो यज्ञ उपवीत विधाना॥ __ आठ वर्ष की अवस्था में विद्या प्रारंभकर चार वर्ष में ही ऐसे पण्डित होगए कि प्रयागनिवासी पण्डित लोग अब आपको अधिक नहीं पढ़ा सकते थे। तब बारह वर्ष की अवस्था में प्रभु श्रीकाशीजी पाए । चौपाई। तहाँ वेद वेदान्त विशेषा । सकल किये करतल अवशेषा॥ आप संन्यासी के शिष्य होके "स्मात रीति से अपने धर्म कर्म में प्रवृत्त हुए । प्रथम आपका नाम श्रीरामदत्त ऐसा था, किसी दण्डी विदान के समीप रहके ब्रह्मचर्ययुक्त विद्या पढ़ते थे। एक दिवस स्वामी श्रीराघवानन्दजी के पास मात्र होके प्रणाम किया, आप कृपादृष्टि से देख भावी वार्ता को जान के कहने लगे कि “तुम्हारे शरीर का तो आयुष भी पूर्ण हो चुका पर अली लो तुम हरि शरणागत न हुए। यह सुन, प्राके, उन दण्डीजी से सब बात आपने कही। दण्डी विज्ञ तो थे ही उस बात को सत्य विचार के बोले कि “बात तो सत्य है परन्तु उपाय मेरे किये न हो सकेगा तुम उन्हीं महानुभावजी के शरणागत । होके शरीर की रक्षा करों। + -- -- - -